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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
जावे तब उस की आकृति, आखें और जीभ आदि परीक्षणीय (परीक्षा करने के योग्य ) अङ्गों को देखना चाहिये, इस के बाद दोनों हाथों की नाड़ी देखनी चाहिये, तथा उस के मुख से सब हकीकत सुननी चाहिये, पीछे उस के शरीर का जो भाग जांचने योग्य हो उसे देखना और जांचना चाहिये, रोगी से हकीकत पूछते समय सब बातों का खूब निश्चय करना चाहिये अर्थात् रोगी की जाति, वृत्ति (रोज़गार), रहने का ठिकाना, आयु, व्यसन, भूतपूर्व रोग (जो पहिले हो चुका है वह रोग), विधिसहित पूर्व से वित औषध (क्या २ दवा कैसे २ ली, क्या २ खाया पिया ? इत्यादि), औषधसेवन का फल (लाभ हुआ वा हानि हुई इत्यादि), इत्यादि सब बातें पूंछनी चाहिये।
इन सब बातों के सिवाय रोगी के मा बाप का हाल तथा उन की शरीरसम्बधिनी ( शरीर की) व्यवस्था ( हालत ) भी जाननी चाहिये, क्योंकि बहुत से रोग माता पिता से ही पुत्रों को होते हैं।
यद्यपि स्वरपरीक्षा से भी रोगी के मरने जीने कष्ट रहने तथा गर्मी शर्दी आदि सब बातों की परीक्षा होती है, परन्तु वह यहां ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से नहीं लिखी है, हां स्वरोदय के विषय में इस का भी कुछ वर्णन किया है, वहां इस विषय को देखना चाहिये।
साध्यासाध्यपरीक्षा बल के द्वारा भी होती है, इस के सिवाय मृत्यु के चिन्ह संक्षेप से कालज्ञान में लिखे हैं, जैसे-कानों में दोनों अंगुलियों के लगाने से यदि गड़ागड़ाहट न होवे तो प्राणी मर जाता है, आंख को मसल कर अँधेरे में खोले, यदि विजुली का सा झबका न होवे तथा आंख को मसल कर मींचने से रंग २ का ( अनेक रंगों का) जो आकाश से बरसता हुआ सा दीखता है वह न दीखे तो मृत्यु जाननी चाहिये, छायापुरुप से अथवा काच में देखने से यदि मस्तक आदि न दीखें तो मृत्यु जाननी चाहिये, यदि चैतसुदि ४ को प्रातःकाल चन्द्रस्वर न चले तो नौ महीने में मृत्यु जाननी चाहिये इत्यादि, यह सब विवरण ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से यहां नहीं लिखा है, हां स्वर का तो कुछ वर्णन आगे (पञ्चमाध्याय में ) लिखा ही जावेगा-यह संक्षेप से रोगपरीक्षा और उस के आवश्यक प्रकारों का कथन किया गया । यह चतुर्थ अध्याय का रोगपरीक्षाप्रकार नामक बारहवां प्रकरण समाप्त हुआ ॥
१-यदि कोई हो तो॥ २-भूतपूर्व रोग का पूछना इस लिये आवश्यक है कि-उस का भी विचार कर ओपधि दी जावे, क्योंकि उपदंश आदि भूतपूर्व कई रोग ऐसे भी है कि जो कारण सामग्री की सहायता पाकर फिर भी उत्पन्न हो जाते हैं-इस लिये यदि ऐसे रोग उत्पन्न होचुके हों तो चिकित्सा में उन के पनरुत्पादक कारण को बचाना पड़ता है।
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