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जैनसम्प्रदायशिक्षा । जिस नर को कुल शील अरु, विद्या जानी नाँहि ॥
नहिँ करिये विश्वास तिहिँ, चतुर पुरुष मन माँहि ॥ २८ ॥ जिस मनुष्य का शील, कुल और विद्या न मालूम हो, उस का चतुर पुरुषों को विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ २८ ॥
प्रीति कहा मञ्जार सों, कह राजा सों प्रीति ॥
गणिका सों पुनि प्रीति कह, कह जाचक की प्रीति ॥२९॥ मार्जार (बिल्ली) के संग प्रीति क्या है (व्यर्थ है ), राजा के साथ भी प्रीति क्या है (यह भी व्यर्थ है, क्योंकि राजा लोग पिशुनों अर्थात् चुगलखोरों के कहने से आगा पीछा न विचार कर थोड़ी सी बात पर ही शीघ्र ही आंख बदल लेते हैं ), वेश्या से भी क्या प्रीति है (यह भी व्यर्थ है, क्योंकि वह तो केवल द्रव्य से प्रीति रखती है, उस का जो कुछ हाव भाव और प्रेम है सो केवल रूपचन्द के लिये है) और याचक (भीख मागने वाले) से भी क्या प्रीति है (यह भी व्यर्थ रूपही है, क्योंकि इस से भी कुछ प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती है किन्तु लघुता ही होती है)॥ २९ ॥
नर चित कों दुख देत हैं, कुच नारी के दोय ॥
होत दुखी वह पड़न तें, इस विधि सब को जोय ॥ ३० ॥ देखो ! स्त्रियों के दोनों कुच पुरुषों के चित्त को दुःख देते हैं, आखिरकार वे आप भी दुःख पाकर नीचे को गिरते हैं, इसी प्रकार सब को जानना चाहिये, अर्थात् जो कोई मनुष्य किसी को दुःख देगा अन्त में वह आप भी सुख कभी नहीं पावेगा ॥ ३० ॥
सिंघरूप राजा हुवै, मत्री बाघ समान ॥
चाकर गीध समान तब, प्रजा होय क्षय मान ॥ ३१ ॥ राजा सिंह के समान हो अर्थात् प्रजा के सब धन माल को लूटने का ही खयाल रक्खे, मन्त्री बाघके समान हो अर्थात् रिश्वत खाकर झूटे अभियोग को सच्चा कर देवे अथवा वादी और प्रतिवादी (मुद्दई और मुद्दायला) दोनों से घूष खा जावे और चाकर लोग गीध के समान हों अर्थात् प्रजा को ठगने वाले हों तो उस राजा की प्रजा अवश्य नाश को प्राप्त हो जाती है ॥ ३१ ॥
उपज्यो धन अन्याय करि, दशहिँ बरस ठहराय ॥ सबहि सोलवें वर्ष लौं, मूल सहित विनसाय ॥ ३२ ॥
१-छोटा नाहर ॥
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