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द्वितीय अध्याय । विन लिम्पी वसुधा सकल, शुची होत मन मान ॥
जहँ लिम्पी तहँ फेर हू, लिम्पे वह शुचि थान ॥ २३ ॥ विना लिपी हुई पृथिवी पवित्र होती है, जहां लिपी हुई हो वहां फिर लीपने से वह स्थान पवित्र होता है ॥ २३ ॥
कृषि देखो पहिले प्रहर, दूजे घर सम्भाल ॥
धन देखो तीजे प्रहर, नित प्रति पुत्र निहाल ।। २४ ॥ पहिले प्रहर में अर्थात् प्रातःकाल खेती का काम देखना चाहिये, दूसरे प्रहर में अर्थात् दोपहर को घर का काम देखना चाहिये, तीसरे प्रहर में धन (माल) का काम देखना चाहिये और पुत्र तथा पुत्री को प्रतिसमय देखते रहना चाहि, तात्पर्य यह है कि, यदि घर का स्वामी इन सबको नहीं देखेगा तो ये सब अवश्य बिगड़ जायगे ॥ २४ ॥
कहा करै मतिवन्त अरु, शूर वीर कवि राज ॥
दैव जु छल देखत रहै, करै विफल सब काज ॥ २५ ॥ बुद्धिमान्-शूर वीर और बड़ा कवि (शास्त्र पढ़ा हुआ पण्डित ) भी क्या कर सकत है-यदि देव ( कर्म की गति ) ही छल करके सब काम को निष्फल कर रहा हो ॥ २५ ॥
सब उपकार करो सही, द्यो धन दान जु कोय ॥
लाड़ लड़ाओ बहुत ही, नहिँ वश भाणज होय ॥ २६ ॥ बहुत उपकार भी किया जाय और सब प्रकार का धन माल भी दिया जाय तथा प्रीति से लाड़ भी किया जाय तो भी भानजा (बहिन का पुत्र) वश में नहीं होता ( अपनी आज्ञा में नहीं चलता) है ॥ २६ ॥
भगिनीसुत अधिकार में, कबहुँ न दीजै काम ॥
कछु दिन बीते वाद ही, होय वहा रिपु वाम ॥ २७ ॥ समझदार मनुष्य को चाहिये कि अपनी बहिन के पुत्र के अधिकार में कभी घर का काम न सौंपे, क्योंकि कुछ दिन बीतने पर वह समय पाकर महाशत्रु तथा उलटा ( विरुद्ध ) हो जाता है ॥ २७ ॥
१--इस का तात्पर्य यह है कि वैसे तो विना लिपी हुई सब पृथिवी सर्वदा पवित्र हि मानी जाती है, क्यं कि पृथिवी और जल आदि पदार्थ स्वभाव से ही शुद्ध माने गये हैं, परन्तु जिस स्थान में लीप पात कर कोई कार्यविशेष किया गया है अतः वह स्थान उस कार्यविशेष के संसर्ग से अशुद्ध होने के कारण फिर लीपने से शुद्ध माना जाता है ॥ २-तात्पर्य यह है कि कर्म की गति के उलटे होने से कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है।
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