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चतुर्थ अध्याय । भारी नाड़ी सम चले स्थिरा बलवती जान ।
क्षुधावन्त नाड़ी चपल स्थिरा तृप्तिमय मान ॥९॥ १-वायु की नाड़ी-सांप तथा जोंक की तरह बांकी (टेढी) चलती है। २-पित्त की नाड़ी-कौआ या मेंडक की तरह कूदती हुई शीघ्र चलती है। ३-कफ की नाड़ी-हंस कबूतर मोर और मुर्गे की तरह धीरे २ चलती है।
४-वायुपित्त की नाड़ी-सांप की तरह टेढ़ी तथा मेंडक की तरह कुदकती हुई चलती है।
५-वातकफ की नाड़ी-सांप की तरह टेढ़ी तथा हंस की तरह धीरे २ चलती है।
६-पित्तकफ की नाड़ी-कौए की तरह कूदती तथा मोर की तरह मंद चलती है।
७-सन्निपात की नाडी-लकड़ी वहरने की करवत की तरह वा तीतर पक्षी की तरह चलती २ अटक जाती है, फिर चलती है फिर अटकती है, अथवा दो तीन कुदके मार कर फिर अटक जाती है, इस प्रकार त्रिदोष ( सन्निपात) की नाड़ी विचित्र होती है।
विशेष विवरण-१-धीमी पड़ कर फिर सरसर (शीघ्र २) चलने लगे उस नाड़ी को दो दोषों की जाने । २-जो नाड़ी अपना स्थान छोड़ दे, जो नाड़ी ठहर २ कर चले, जो नाड़ी बहुत क्षीण हो तथा जो नाड़ी बहुत ठंढी पड़ जावे, यह चार तरह की नाड़ी प्राणघातक है। ३-बुखार की नाड़ी गर्म होती है तथा बहुत जल्द चलती है। ४-चिन्ता तथा डर की नाड़ी मन्द पड़ जाती है। ५कामातुर और क्रोधातुर की नाड़ी जल्दी चलती है। ६-जिस का खून विगड़ा हो उस की नाड़ी गर्म तथा पत्थर के समान जड़ और भारी होती है। ७-आम के दोष की नाड़ी बहुत भारी चलती है । ८-गर्भवती की नाड़ी गहरी पुष्ट और हलकी चलती है। ९-मन्दाग्नि धातुक्षीणता और नींद से युक्त तथा नींद से तुरत उठे हुए आलसी और सुखी इन सब की नाड़ी स्थिर चलती है । १०अतिक्षुधायुक्त की नाड़ी चंचल चलती है । ११-जिसको बहुत दस्त लगते हों उस की नाड़ी बहुत जल्दी चलती है। १२-भोजन के बाद नाड़ी धीमी चलती है। १३-जो नाड़ी टूट २ कर चले, क्षण में धीमी तथा क्षण में जल्दी चले, बहुत जल्दी चले, लक्कड़ के समान करड़ी, स्थिर और टेड़ी चले बहुत गर्म चले तथा अपने ठिकाने पर चलती २ बन्द हो जावे, ये सब तरह की नाडियां प्राणनाशके चिन्ह को दिखानेवाली हैं।
का विकार समझना चाहिये, भारी नाड़ी सम चलती है, बलवती नाड़ी स्थिररूप से चलती है. भूख से युक्त पुरुष की नाड़ी चपल तथा भोजन किये हुए पुरुष की नाडी स्थिर होती है ॥ ९ ॥
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