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चतुर्थ अध्याय । - ८--मदात्यय-इस रोग से अजीर्ण, दाह और पागलपन का असाध्य रोग होता है।
९-उपदंश वा गर्मी-उपदंश अर्थात् दुष्ट स्त्री आदि से उत्पन्न हुई गर्मी के रोग से विस्फोटक, गांठ, वातरक्त, रक्तपित्त, हरस, भगन्दर, नासूर और गठिया आदि रोग होते हैं।
१८-सुज़ाख-सुज़ाख होकर प्रमेह हो जाता है, उस (प्रमेह) से बदगांठ, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात और प्रमेहपिटिका (छोटी २ फुनसियां) आदि रोग तथा उपदंश सम्बंधी भी सब प्रकार के रोग होते हैं। यह चतुर्थ अध्याय का रोग सामान्यकारण नामक दशवां प्रकरण समाप्त हुआ।
ग्यारहवां प्रकरण त्रिदोषजरोगवर्णन।
त्रिदोषज अर्थात् वात पित्त और कफ से उत्पन्न
होनेवाले रोगों का समय । आर्य वैद्यक शास्त्र के अनुसार यह सिद्ध है कि-सब ही रोगों की जड़ वात पित्त और कफ ही हैं, जबतक ये तीनों दोष बराबर रहते हैं अथवा अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हैं तबतक शरीर नीरोग गिना जाता है परन्तु जब इन में से कोई एक अथवा दो वा तीनों ही दोष अपनी २ मर्यादा को छोड़ कर उलटे मार्गपर चलते हैं तब बहुत से रोग उत्पन्न होते हैं। __ ये तीनों दोष किस प्रकार से अपनी मर्यादा को छोड़ते हैं तथा उन से कौन २ से रोग प्रकट होते हैं इस विषय का संक्षेप से वर्णन करते हैं:
वायु के कोप के कारण । अपान वायु के, दस्त के और पेशाब के वेग को रोकना, तिक्त तथा कषैले रसवाले पदार्थों का खाना, बहुत ठंढे पदार्थों का खाना, रात्रि को जागरण करना, बहुत स्त्रीसंग (मैथुन) करना, बहुत परिश्रम करना, बहुत खाना, बहुत मार्ग
१-बहुत शराब के पीने से जो रोग होता है उस को मदात्यय कहते हैं ॥ २-जैसा कि वैद्यकग्रन्थों में लिखा है कि-"तेषां समत्वमारोग्यं क्षयवृद्धी विपर्ययः" अर्थात् उन (त्रिदोषों अर्थात् वात पित्त और कफ) का जो समान रहना है वहीं आरोग्यता है और उन की जो न्यूनाधिकता है वही रोगता है ॥
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