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चतुर्थ अध्याय !
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प्रियमित्रो ! अपने और देश के शुभचिन्तको ! अब आप से यही कहना है कियदि आप आपने सन्तानों को सुखी देखना चाहते हो तथा परिवार और देश की उन्नति को चाहते हो तो सब से प्रथम आप का यही कर्त्तव्य होना चाहिये कि -
अनेक रोगों के मूल कारण इस बाल्यावस्था के विवाह की कुरीति को बंद कर शास्त्रोक्त रीति को प्रचलित कीजिये, यही आप के पूर्व पुरुषों की सनातन रीति है। इसी के अनुसार चलकर प्राचीन काल में तुल्य गुण कर्म और स्वभाव से युक्त स्त्री पुरुष शास्त्रानुसार स्वयंवर में विवाह कर गृहस्थाश्रम के आनन्द को भोगते थे, बाल्यावस्था में विवाह होने की यह कुरीति तो इस भारत वर्ष में मुसलमानों की बादशाही होने के समय से चली है, क्योंकि मुसलमान लोग हिन्दुओं की रूपवती अविवाहिता कन्याओं को जबरदस्ती से छीन लेते थे किन्तु विवाहिताओं को नहीं छीनते थे, क्योंकि मुसलमानों की धर्मपुस्तक के अनुसार विवाहिता कन्याओं का छीनना अधर्म माना गया है, बस हिन्दुओं ने “मरता क्या न करता" की कहावत को चरितार्थ किया क्योंकि उन्हों ने यही सोचा कि अब बाल्य विवाह के विना इन ( मुसलमानों ) से बचने का दूसरा कोई उपाय नहीं है, यह विचार कर छोटे २ पुत्रों और पुत्रियों का विवाह करना प्रारम्भ कर दिया, बस तब से आजतक वही रीति चल रही है, परन्तु प्रिय मित्रो ! अब वह समय नहीं है अब तो न्यायशीला श्रीमती ब्रिटिश गवर्नमेंट का वह न्याय राज्य है कि जिस में सिंह और बकरी एक वाटपर पानी पीते हैं, कोई किसी के धर्मपर आक्षेप नहीं कर सकता है और न कोई किसी को विना कारण छेड़ा सता सकता है, इस के सिवाय राज्यशासकों की अति प्रशंसनीय बात यह है कि वे परस्त्री को बुरी दृष्टि से कदापि नहीं देखते हैं, जब वर्त्तमान ऐसा शुभ समय है तो अब भी हमारे हिन्दू (आर्य ) जनों का इन कुरीतियों को न सुधारना बड़े ही अफ़सोस का स्थान है ।
१- स्वयंवररूप विवाह परम उत्तम विवाह है, इस में यह होता था कि कन्या पिता अपनी जाति के योग्य मनुष्यों को एक तिथिपर एकत्रित होने की सूचना देता था और वे सब लोग सूचना के अनुसार नियमित तिथिपर एकत्रित होते थे तथा उन आये हुए पुरुषों में से जिसको कन्या अपने गुण कर्म और स्वभाव के अनुकूल जान लेती थी उसी के गले में जयमाला ( वरमाला) डाल कर उस से विवाह करती थी, बहुधा यह भी प्रथा थी कि स्वयंवरों में कन्या का पिता कोई प्रण करता था तथा उस प्रण को जो पुरुष पूर्ण कर देता था तब कन्या का पिता अपनी कन्या का विवाह उसी पुरुष से कर देता था, इन सब बातों का वर्णन देखना हो तो कलिकाल सर्वज्ञ मीहेमचन्द्राचार्यकृत संस्कृत रामायण तथा पाण्डवचरित्र आदि ग्रन्थों को देखो ॥ २ - इतिहार्मो न सिद्ध है कि आर्यावर्त्त के बहुत से राजाओं की भी कन्याओं के डोले यवन बादशाहों ने लिये हैं. फिर भला सामान्य हिन्दुओं की तो क्या गिनती है ॥ ३- क्योकि विवाहिता कन्यापर दूसरे पुरुष का ( उसके स्वामी का ) हक हो जाता है और इन के मत का यह सिद्धान्त हैं कि दूसरे के हक में आई हुई वस्तु का छीनना पाप है ॥ प्रथम पाया भी है |
४- सचमुच यही गृहस्थाश्रमका
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