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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
अवस्था, रूप, विद्या आदि गुण, सङ्घतीव और स्वभावादि बातों का विचार कर अर्थात् दोनों में, उक्त बातों की समानता को देखकर उन का विवाह कर देते थे, इस से भी वही अभीष्ट सिद्ध होता था जैसा कि ऊपर लिख चुके हैं अर्थात् दोनों ( स्त्री पुरुष ) गृहस्थाश्रम के सुख को प्राप्त कर अपने जीवन को विताते थे ।
रूप, अवस्था,
४ ऊपर कही हुई दोनों रीतियाँ जब नष्टप्राय हो गई अर्थात् स्वयंवर की रीति बन्द होगई और माता पिता आदि गुरुजनों ने भी वर और कन्या गुणकर्म और स्वभावादि का मिलान करना छोड़ दिया, तब परिणाम में होनेवाली हानि की सम्भावना को विचार करें अनेक बुद्धिमानों ने वर और कन्या के गुण आदि का विचार उन के जन्मपत्रादिपर रक्खा अर्थात् ज्योतिपी के द्वारा जन्मपत्र और ग्रहगोचर के विचार से उन के गुण आदि का विचार करवा कर तथा किसी मनुष्य को भेज कर वर और कन्या के रूप और अवस्था आदि को जान कर उन (ज्योतिषी आदि) के कहदेने पर वर और कन्या का विवाह करने लेंगे, बस तब से यही रीति प्रचलित हो गई, जो कि अब भी प्रायः सर्वत्र देखी जाती है ।
अब पाठकगण प्रथम संख्या में लिखे हुए दुहिता शब्द के अर्थ से तथा दूसरी संख्या से चौथी संख्यापर्यन्त लिखी हुई विवाह की तीनों रीतियों से भी ( लौकिक
१ - कन्नौज के महाराज जयचन्द्रजी राठौर ने अपनी पुत्री के विवाह के लिये स्वयंवरम उप की रचना करवाई थी अर्थात् स्वयंवर की रीति से अपनी पुत्री का विवाह किया था, बस उस के बाद से प्रायः उक्त रीती से विवाह नहीं हुआ अर्थात् स्वयंवर की रीती उठ गई, यह त इतिहासों से प्रकट है | २ द्रव्य के लोभ आदि अनेक कारणों से || ३ - अर्थात् समान स्वभाव और गुण आदि का विचार न करनेपर विरुद्ध स्वभाव आदिके कारण वर और कन्या को गृहस्थाश्रम का सुख नहीं प्राप्त होगा, इत्यादि हानि की सम्भावना को विचार कर ॥ ४ परन्तु महाशोक का विषय है कि वर और कन्या के माता पिता आदि गुरु जन अब इस अति रू.गरण तीसरे दर्जे की रीती का भी द्रव्य लोभादि से परित्याग करते चले जाते हैं अर्थात् वर्त्तमान में प्रायः देखा जाता है कि - श्रीमान् (द्रव्यपात्र ) लोग अपने से भी अधिक केवल द्रव्यास्पद घर देखते हैं, दूसरी बार्तो ( लड़के का लड़की से छोटा होना आदि हानिकारक भी बातों को बिलकुल नहीं देखते हैं, इस का कारण यह हैं कि द्रव्यास्पद घराने में सम्बन्ध होने ने वे संसार में अपनी नामवरी को चाहते हैं ( कि अमुक के सम्बन्धी अमुक बड़े सेठजी हैं इत्यादि), अब श्रीमान् लोगों के सिवाय जो साधारण जन - उन को देखकर वैसा करना ही है अर्थात् वे कब चाहने लगे कि हमारी कन्या बड़े घर में न जावे अथवा हमारे लड़के का सम्बन्ध बड़े घर में न होवे, तात्पर्य यह है कि गुण और स्वभावादि सब बातों का विचार छोड़कर द्रव्य की ओर देखने लगे, यहाँतक कि ज्योतिषीजी आदितक को भी द्रव्य का लोभ देकर अपने वश में करने लगे अर्थात् उन से भी अपना ही अभीष्ट करवाने लगे, इस के सिवाय लोभा दे के कारण जो विवाह के विषय में कन्याविक्रय आदि अनेक हानियां हो चुकी हैं और होती जाती हैं उन को पाठकगण अच्छे प्रकार से जानते ही हैं अतःउन को लिखकर हम ग्रन्थ का विस्तार करना नही चाहते हैं, किन्तु यहां पर तो "निजकुटुम्ब में विवाह कदापि नहीं होना चाहिये " इस विषय को लिखते हुए प्रसंगवशात् यह इतना आवश्यक समझ कर लिखा गया है। आशा है कि पाठकगण हमारे इस लेख से यथार्थ तत्वको समझ गये होंगे ॥
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