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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
११ - कोई अक्षर संयोग में पूरे स्वरूप से मिलते हैं और कोई आधे स्वरूप से मिलते हैं, जैसे श+क-इक, इ+क-क, इत्यादि ॥
के दो भेद और भी हैं एक सानुनासिक और दूसरे
१२-१
- अक्षरों निरनुनासिक ॥
१३ - सानुनासिक उन्हें कहते हैं जिन का उच्चारण मुख और नासिका से हो, इसका चिह्न अर्द्धचन्द्राकार बिन्दु तथा अनुस्वार है जैसे दाँत, काँच, कंठ, अंग, इत्यादि । इन के सिवाय ड ज ण न म भी अनुनासिक हैं ।
१४ -- अ ण न म ये वर्ण प्रायः अपने ही वर्ग के वर्णों से मिलते हैं, जैसे- -दन्त, पम्प, कङ्कण, कण्ठ, व्यञ्जन, इत्यादि ॥
वर्णोंके स्थान और प्रयत्नका वर्णन |
संख्या स्थान |
१
कण्ठ
२
तालु
३ मूर्धा
४ दन्त
ओष्ठ
६
कण्ठ और तालु
७
कण्ठ और ओठ
८
दन्त और ओष्ठ
९ मुख और नासिका
५
ख
च छ
44 24 H
विवार || विचार |
बाह्य || श्वास ॥ श्वास ॥ अघोष ॥ अघोष ॥
अल्पप्राण ॥ महाप्राण ॥
क
ट
अक्षर त
प
105
अक्षर ॥
अ, आ, कवर्ग, विसर्ग और हकार ॥ इ, ई, चवर्ग, यकार और शकार ॥ ऋ, ॠ, टवर्ग, रेफ और षकार ॥ लु, ल, तवर्ग, लकार और सकार ॥ उ, ऊ, पवर्ग और उपध्मानीय ॥
और ऐ ॥ ओ और औ ॥
थ
फ
쇠의석
श
प
वकार ॥
ङ, ञ, ण, न और म ॥ प्रयत्नवर्णन |
स
ग ङ
ज ज
उ ण
द न ब म
उदात्त, अनुदात्त, स्वरित ॥
अ
संवार, नाद, घोष, अल्पप्राण ॥ | संवार ॥
नाद ॥ घोष ॥
महाप्राण ॥
ह्रस्व,
आभ्यन्तर स्पृष्ट । ईषद्विवृत, स्पृष्ट, विवृत,
विवृत ॥
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नाम ॥
य
व
र
ल
कण्ठ्य ॥
तालव्य ॥
मूर्धन्य ॥
दन्त्य ॥
ओष्ठ ॥
कण्ठतालव्य ॥
कण्ठौष्ट्य ॥
दन्तोष्ठ ॥ सानुनासिक ॥
घ
झ
ढ
भ.
he
ह
ई
| ईषद्वि
त्स्पृष्ट। स्पृष्ट । वृत ।
१ - देखो संयुक्ताक्षरों का दूसरा नियम ॥ २ - प्रयत्न दो प्रकार के होते हैं आभ्यन्तर और बाह्य | आभ्यन्तर के पांच भेद हैं--स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, ईषद्विवृत, विवृत और संवृत । बाह्य प्रयत्न ११ प्रकार का है - विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ॥
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