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चतुर्थ अध्याय ।
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कर अथवा घी में तलकर छोटे बालकों को खिलाने से उन का अच्छी तरह पोषण करता है तथा हाड़ों को बढ़ाता है
रतालू तथा सकरकन्द – पुष्टिकारक, मीठा, मलको रोकनेवाला और कफकारी है ॥
जूली- भारी मल को रोकनेवाली, तीखी, उष्णताकारक, अग्निदीपक और रुचिकर है, हरस, गुल्म, श्वास, कफ, ज्वर, वायु और नाक के रोगों में हितकारी है, कच्ची मूली तीनो प्रकृति वाले लोगों के लिये हितकारक है, पकी हुई तथा बड़ी मूलियों को मूले कहते हैं - वे (मूले ) रूक्ष, अति गर्म और कुपथ्य हैं, मूले के ऊपर के छिलके भारी और तीखे होते हैं इसलिये वे अच्छे नहीं हैं, मूले को गर्म जल में अच्छी तरह से सिजा कर पीछे अधिक घी या तेल में तल कर खाने से यह तीनों प्रकृतिवालों के लिये अनुकूल हो जाता है ।
गाजर - मीठी, रुचिकर तथा ग्राही है, खुजली और रक्तविकार के रोगों में हानि करती है, परन्तु अन्य बहुत से रोगों में हितकारी है, यह वीर्य को बिगाड़ती है इसलिये इस को समझदार लोग नहीं खाते हैं ।
काँदा - बलवर्धक, तीखा, भारी, मीठा, रुचिकर, वीर्यवर्धक तथा कफ और नींद को पैदा करनेवाला है, क्षय, क्षीणता, रक्तपित्त, वमन, विपूचिका (हैज़ा), कृमि, अरुचि, पसीना, शोथ और खून के सब रोगों में हितकारी है, इस का शाक मुरब्बा और पाक आदि भी बनता है ।
धने की युक्ति और दूसरे पदार्थों के संयोग से शाक तरकारी के गुणों में भी अन्तर हो जाता है अर्थात जो शाक वायुकर्त्ता होता है वह भी बहुत घी तथा तेल के संयोग से बनाने पर वायुकर्त्ता नहीं रहता है, इसी प्रकार सुरण और आलू आदि जो शाक पचने में भारी है उस को पहिले खूब जल में सिजाकर फिर घी या तेल में छौंका जावे तो वह हानि नहीं करता है, क्योंकि ऐसा करने से उस का भारीपन नष्ट हो जाता है ।
शकों के विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि - शाकों में बहुत लाल मिर्च तथा दूसरे मसाले डाल कर नहीं खाने चाहिये, क्योंकि अधिक लाल मिर्च और मसाले डाल कर शाकों के खाने से पाचनशक्ति कम होकर दस्त, संग्रहणी, आम्लपित्त, रक्तपित्त और कुष्ठ आदि रक्तविकारजन्य रोग हो जाते हैं ।
तथा
१ - रसीलिये - जैनशास्त्रों में जगह २ कन्द के खाने का निषेध किया है तथा अन्यत्र भी इस के सर्वत्र निषेध ही किया है, इस लिये कन्द का कोई भी शाक दवा के सिवाय जैनी वैष्णवों को भी नहीं खाना चाहिये, क्योंकि - जैनसूत्रों में कन्द को 'अनन्तकाय' के नाम से बताकर इस खाने का निषेध किया है तथा वैष्णव और शैव सम्प्रदायवालों के धर्मग्रन्थों में भी कन्दमूल का खाना निषिद्ध है, इस का प्रमाण सात व्यसन तथा रात्रिभोजन के वर्णन में आगे लिखेंगे ॥ २- यह संक्षेप से कुछ शाकों का वर्णन किया गया है, शेष शाक का वर्णन बृहन्निघण्टुलाकर आदि ग्रन्थों में देखना चाहिये ॥
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