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________________ चतुर्थ अध्याय । १५९ कुँए के पनघट, मोहरी, नाली, पनाले और पाखाना आदि हैं, इस लिये इन को नित्य साफ और सुधरे रखना चाहिये । ६ - कोयले की खानें, लोह के कारखाने, रुई ऊन और रेशम बनने की मिलें तथा धातु और रंग बनाने के कारखाने आदि अनेक कार्यालयों से भी हवा बिगड़ती है, ह तो प्रत्यक्ष ही देखा गया है कि इस प्रकार के कारखानों में कोयलों, रुई और धातुओं के सूक्ष्म रजःकण उड़ २ कर काम करनेवालों के शरीर में जाकर बहुधा उन के श्वास की नली के, फेफड़े के और छाती के रोगों को उत्पन्न कर देते हैं । ७- चिलम, हुक्का और चुरटों के पीने से भी हवा विगड़ती है अर्थात् यह जैसे पीने वालों की छाती को हानि पहुँचाता है, उसी प्रकार से बाहर की हवा को भी गाड़ता है, यद्यपि वर्त्तमान समय में इस का व्यसन इस आर्यावर्त्त देश में सर्वत्र फैल रहा है, किन्तु दक्षिण, गुजरात और मारवाड़ में तो यह अत्यन्त फैला हुआ 'है कि जिस से वहां अनेक प्रकार की बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं । २ इन कारणों के सिवाय हवा के बिगड़ने के और भी बहुत से कारण हैं, जिन को बिस्तार के भय से नहीं लिख सकते, इन सब बातों को समझ कर इन से बचना मनुष्य को अत्यावश्यक है और इन से बचना मनुष्य के स्वाधीन भी है, क्योंकिदेखो। अपने कर्मोकी विचित्रता से जो बुद्धि मनुष्यों ने पाई है उस का ठीक रीति से उपयोग न कर पशुओं के समान जन्म को विताना तथा दैव का भरोसा रखना आदि अनेक बातें मनुष्यों को परिणाम में अत्यन्त हानि पहुँचाती हैं, इस लिये सुज्ञों ( समझदारों ) का यह धर्म है कि - हानिकारक बातों से पहिले ही से बच कर चलें और अपनी आरोग्यता को कायम रख कर मनुष्य जन्म के फल को प्राप्त करें, क्योंकि हानिकारक बातों से बचकर जो मनुष्य नहीं चलते हैं उन को अपने लिये हुए कुकर्मों का फल ऐसा मिलता है कि उन को जन्मभर रोते ही बीतता, इस प्रकार से अनेक कष्टरूप फल को भोगते २ वे अपने अमूल्य मनुष्यजन्म को कास, श्वास और क्षय आदि रोगों में ही बिता कर आधी उम्र में ही इस संसार से चले जाकर अपनी स्त्री और बाल बच्चों आदि को अनाथ छोड़ जाते हैं, देखो ! इस बात को अनेक अनुभवी वैद्यों और डाक्टरों ने सिद्ध कर दिया है। कि- गांजा सुलफे के पीनेवाले सैकड़ों हजारों आदमी आधी उम्र में ही मरते हैं । देखो ! जिस पुरुषने इस संसार में आकर विद्या नहीं पड़ी, धन नहीं कमाया, देश, जाति और कुटुम्ब का सुधार नहीं किया और न परभव के साधनरूप १ - देव का भरोसा रखनेवाले जन यह नहीं विचारते हैं कि हमारे कर्मों ने आगे को बिगाड होने के व्येि ही हमारी समझमेंसे सदुद्यम की बुद्धि को हर लिया है ।। २ दश बारह युवा पुरुषों को तो हम ने अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष ही महादुर्दशा में मरते देखा है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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