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तृतीय अध्याय।
१४३ इस प्रकार से ये कुछ संक्षिप्त नियम बालरक्षा के विषय में दिखलाये गये हैं कि इन नियमों को जान कर स्त्रियां अपने बालकों की नियमानुसार रक्षा करें, क्योंकि जबतक उक्त नियमों के अनुसार बालकों की रक्षा नहीं की जायगी तबतक वे नीरोग, बलिष्ठ, दृढ़ बन्धानवाले, पराक्रमी और शूर वीर कदापि नहीं हो सकेंगे और वे उक्त गुणों से युक्त न होने से न तो अपना कल्याण कर सकेंगे और न दूसरोंका कुछ उपकार कर सकेंगे, इस लिये माता पिता का सब से मुख्य यही कर्तव्य है कि वे अपने बालकों की रक्षा सदा नियम पूर्वक ही करें, क्योंकि ऐसा करने से ही उन बालकों का, बालकों के माता पिताओं का, कुटुम्ब का और तमाम संसार का भी उपकार और कल्याण हो सकता है।
यह तृतीय अध्याय का बालरक्षण नामक-चौथा प्रकरण समाप्त हुआ ॥ इते श्री जैन श्वेताम्बर-धर्मोपदेशक-यति प्राणाचार्य-विवेकलब्धि शिष्यशीलसौभाग्यनिर्मितः, जैनसम्प्रदायशिक्षायाः
तृतीयोऽध्यायः॥
१-पालरक्षा के विस्तृत नियम वैद्यक आदि ग्रन्थों में देखने चाहियें ॥ २-'स्वयमसिद्धः कथं परार्थान्न साधयितुं शक्नोति' । अर्थात् जो स्वयं (खुद) असिद्ध (सर्व साधनों से रहित अथवा असमर्थ ) है वह दूसरों के अर्थों को कैसे सिद्ध कर सकता है।
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