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तृतीय अध्याय ।
माता के समान, देवर को पुत्र के समान, देवरानी को पुत्री के समान तथा इन के पुत्रों और पुत्रियों को अपनी सन्तान के समान समझती है, सच्छात्रों को सदा पढ़ती और सुनती है, किसी की निंदा नहीं करती है, नीच और कलंकित स्त्रियों की संगति कभी नहीं करती है किन्तु उन के पास खड़ी रहना व बैठना भी नहीं चाहती है, किन्तु केवल कुलीन और सुपात्र स्त्रियों की संगति करती है, सब दुर्गुणों से आप दूर रह कर तथा सद्गुणों को धारण कर दूसरी स्त्रियों को अपने समान बनाने की चेष्टा करती है, किसी से कटु वचन कभी नहीं कहती है, व्यर्थ बकवाद न करके आवश्यकता के अनुसार अल्पभाषण करती है (थोड़ा बोलती है), पति का स्वयं अपमान नहीं करती तथा दूसरों के किये हुए भी उस के अपमान का सहन नहीं कर सकती है, वैद्य वृद्ध और सद्गुरु आदि के साथ भी आवश्यकता के अनुसार मर्यादा से बोलती है, पीहर में अधिक समय तक नहीं रहती है, इस संसार में यह मनुष्य जन्म सार्थक किस प्रकार हो सकता है इस बात का अहर्निश (दिन रात) विचार करती है,
और विचार के द्वारा निश्चित किये हुए ही सत्य मार्ग पर चल कर सब वर्ताव करती है, विघ्नों को और अनेक संकटों को सह कर भी अपनी नेक टेक को नहीं छोड़ती है, इत्यादि शुभ लक्षण सती अर्थात् पतिव्रता स्त्री में होते हैं।
देखो ! उक्त लक्षणों को धारण करनेवाली ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दनवाला, राजेमती, द्रौपदी, कौशल्या, मृगावती, सुलसा, सीता, सुभद्रा, शिवा, कुन्ती, शील पती, दमयन्ती, पुष्पचूला और पद्मावती आदि अनेक सती स्त्रियां प्राचीन काल में हो चुकी हैं, जिन्हों ने अपने सत्य व्रतको अखंडित रखने के लिये अनेक प्रकार की आपत्तियों का भी सामना कर उसे नहीं छोड़ा अर्थात् सब कष्टों का सहन करके भी अपने सत्यव्रत को अखंडित ही रक्खा, इसी लिये वे सती इस महत् पूज्य पद को प्राप्त हुईं, क्योंकि सती इस दो अक्षरों की पूज्य पदवी को प्राप्त कर लेना कुछ सहज बात नहीं है किन्तु यह तो तलवार की धार पर चलने के समान अति कठिन काम है, परन्तु हां जिस के पूर्वकृत पुण्यों का सञ्चय होता है उन को तो यह पद और उस से उत्पन्न होनेवाला सुख स्वाभाविक रीति से सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं।
इस अर्वाचीन काल में तो बहुत से भोले लोगों को यह भी ज्ञात (मालूम ) नहीं है कि सती किस को कहते हैं और वह किस प्रकार से पहिचानी जाती है, इसी का फल यह हो रहा है कि-उत्तम और अधम स्त्री का विवेक न करके साधारण एक वा दो गुणों को धारण करनेवाली स्त्री को भी सती कहने लगते हैं, यह अत्यन्न निकृष्ट ( खराब) प्रणाली है, वे इस बात को नहीं स झते हैं कि इस पद को प्राप्त करने में सब गुणों का धारण करना रूप कितना परिश्रम उठाना पड़ता है और कितनी बड़ी २ तकलीफें सहनी पड़ती हैं, अनेक प्रकार के
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