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तृतीय अध्याय ।
धर्मशास्त्र में यह भी कहा गया है कि जिस कुल में स्त्रियां दुःखी होती हैं उस कुल का शीघ्र ही नाश हो जाता है, तथा उस घर की समृद्धि चली जाती है, इस लिये पुरुष का यह धर्म है कि-समृद्धि, सुख, वंश और कल्याण की वृद्धि करनेवाली जो अपनी स्त्री है उस को अपनी शक्ति के अनुसार अन्न वस्त्र और आ नूपण आदि से दुःखित न रख कर उस का सब प्रकार से सन्तोष कर सत्कार करे. उस का संरक्षण करे, उस पर पूर्ण स्नेह रक्खे, उस का हित करे तथा उस का अनादर (तिरस्कार) कदापि न करे।
पहिले कह चुके हैं कि-स्त्री घर की कार्यवाहिका अर्थात् मन्त्री है, वही घर की लक्ष्मी तथा संसारसागर से पार होने में साथी कहलाती है, इसीलिये शास्त्रकारों ने स्त्री को अर्धांगिनी कहा है. इसलिये पुरुष को चाहिये कि-जिस प्रकार अपने शरीर को शोभित करने की और सुखी रखने की चेष्टा करता है उसी प्रकार स्त्री के लेये भी चेष्टा करे, क्योंकि देखो! यदि आधा शरीर अच्छा नहीं होता है तो सब व्यवहार अटक जाया करते है, इसी प्रकार यदि स्त्री अयोग्य और दुःखी होगी तो पुरुप कभी सुखी नहीं रह सकता है. इस लिये पुरुष को उचित है कि स्त्री को तन मन और कर्म से अपने प्राणों के समान समझे, क्योंकि शान्त्रकारों का कथन है कि इस संसार में पुरुप का सच्चा मित्र स्त्री ही है, और विचार कर देखा जाय तो यह बात बिलकुल सत्य है, क्योंकि-दुःख को दूर कर ना ही मित्र का परम धर्म है और इस बात को स्त्री बराबर करती ही है, देखा ! जिस समय पुरुष पर अनेक प्रकार की आपत्ति आ पड़ती है और पुरुष को यह भी नहीं सूझता है कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये, उस समय स्त्री ही पति को धैर्य (धीरज) हिम्मत और दिलासा देती है और उस को विपत्ति से पार होने का उपाय और मार्ग बतलाती है, इतना ही नहीं किन्तु स्त्री सुख दुःख दोनों में ही पति को आनन्द देनेवाली है, इस लिये सब प्रकार आनंद देवाली अपनी अर्धांगिनी को सदा सुख देकर उसे आनन्द में रक्खे यही पुरुष का परम धर्म है। __ यदि स्त्री से जान बूझ कर अथवा विना जाने कोई काम बिगड़ जाय तो उस पर क्षमा रक्खे और फिर वैसा न होने पावे इस बात की शिक्षा कर दे, क्योंकि जैसा प्रीति से काम अच्छा बनता है वैसा भय से कदापि नहीं बनता है, इस लिय जहां तक हो सके केवल ऊपरी भय दिखाकर भीतरी प्रीति का ही वर्ताव रक्वे, यद्यपि संसार में यह कहावत प्रसिद्ध है कि- "भय विन बाई न प्रीति" अर्थात् भय के विना प्रीति नहीं होती है, और यह बात किसी अंश में सत्य भी है, परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि केवल भय भयंकररूप होकर हानिकर्ता हो जाना है, इसी प्रकार से बहुत से अज्ञ जन कहा करते हैं कि "ढोल गँवार शूद्र अर. नारी । ये चारहुँ ताड़न के अधिकारी" अर्थात् ढोल (बाजाविशेष), गँवार
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