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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
स्त्री का यह भी मुख्य कर्तव्य है कि-जैसे पुरुष अपने पिता के नाम से प्रसिद्ध होकर अपने सद्गुणों से पिता की कीर्ति को बढ़ाता है उसी प्रकार स्त्री भी अपने पति के नामसे प्रसिद्ध होकर अपने सद्गुणों के द्वारा अपने पति की कीर्ति को बढ़ावे, किन्तु जिन कामों से लोक में निन्दा हो ऐसे काम कदापि न करे तथा पति के सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंका न करे, यदि कोई दुष्ट मनुष्य पनिपत्नी में दृढ़ प्रेम देखकर उस को तोड़ने के लिये उपाय करे अर्थात् इस प्रकार की बातें कहे कि-"तुम्हारा पति अनुचित मार्ग पर चलता है, तुम्हारे ऊपर वह पूर्ण प्रेम नहीं रखता है किन्तु दूसरी स्त्री पर स्नेह रखता है" इत्यादि, तो अपने कान कच्चे न करके उस की ऐसी बातें सुनी अनसुनी कर जाना चाहिये (उस की बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिये) किन्तु उस के कथन की जांच करनी चाहिये अर्थात् विचारना चाहिये कि-यह मनुष्य ऐसी बातें किस लिये करता है, किन्तु उस पुरुष से तो विना विचार किये ही (एकदम) यह कहना चाहिये कि हमारा पति ऐसा काम कभी नहीं कर सकता है, किन्तु उस के भड़काने से भड़कना नहीं चाहिये क्योंकि यदि किसी का कहना सुन कर विना जांच किये ही मन में शंका कर लेगी तो पति के साथ अवश्य स्नेह टूट जायगा और स्नेह के टूट जाने से गृहस्थाश्रम बिगड़ कर यह संसार दुःखरूप हो जायगा, इस लिये समझदार स्त्री को किसी के भी कहने पर विश्वास नहीं करना चाहिये किन्तु केवल एक पति पर ही पूर्ण विश्वास रखना चाहिये, यदि कदाचित् कर्मसंयोग से पति बुरा भी मिल जाय तथापि उस पर ही सन्तोप रखना चाहिये, क्योंकि देखो ! जिस कुल में भर्ता भार्या से और भार्या भर्ता से सदा सन्तुष्ट रहते हैं उस कुल में सदा कल्याण का वास होता है।
ऊपर कही हुई शिक्षा के अनुसार जो स्त्री चलेगी वही साध्वी और सती का पद प्राप्त कर दोनों लोकों में उत्तम सुख का भोग करेगी।
पति का स्त्री के साथ कर्तव्य ॥ गृहस्थाश्रम में स्त्री देवी और घर की लक्ष्मीरूप कहलाती है, क्योंकि-सर्व बुद्धिमानों का यह मत है कि-घर जो है वह वास्तव में घर नहीं है किन्तु वृहिणी अर्थात् घर की जो स्त्री है वही घर है, देखिये नीतिशास्त्र में लिखा भी है कि-"न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते ॥ तया विरहितं यत्तु यथारण्यं तथा गृहम्" ॥ १॥ अर्थात् घर वास्तव में घर नहीं है किन्तु गृहिणी ही घर है, क्योंकि गृहिणी से रहित जो घर है वह जंगल के समान है ॥ १ ॥
१-जैसा कि धर्मशास्त्रों में लिखा है कि-सन्तुष्टो भार्यया भर्ता, मा भार्या तथैव च ॥ यसि नेव कुले नित्यं, कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥ १॥ इस का अर्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है ।। २-क्योंकि धर्मशास्त्रों में सती स्त्री को दोनों लोकों के उत्तम सुख की प्राप्ति कही गई है। .
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