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( ३६ ) नो बुद्धिमानों के लिये प्रचलित-श्रयमाण अर्थ कदापि नहीं लागू होगा। अतः इसका कोई दूसरा ही अर्थ होना चाहिये, जो बुद्धि मानों में लागू हो सके । अतः तात्पर्य से अर्थ लगाकर इस तरह श्लोक का समन्वय करना पड़ता है कि प्रातःकाल में द्यूत प्रसंग अर्थात जिस ग्रंथ में जूवा खेलने का दुष्परिणाम बताया गया ऐसे ग्रन्थ नल चरित्र आदि पढ़ना चाहिये, जिससे अपना चित्त व्यसनों को तरफ न मुके । एवं मध्याह्न स्त्री प्रसंगतः=अर्थात मध्याह्न काल में स्त्रियों के फन्दे में पड़ने के अनिष्ट परिणाम जिसमें बताया गया है, उन ग्रंथों को अर्थात रामायण आदि को पढना चाहिये, जिससे रावण के सत्यानाश की तरफ ध्यान देकर अपना चित्त पर स्त्री में आसक्त न हो! तथा "रात्रौ चौर प्रसंगेन" इसका अर्थ यह होता है कि रात्रि में चोर अर्थात् माखन चोर श्री कृष्ण वासुदेव का चरित्र पढ़ना चाहिये । उनका चरित्र पढने से परोपकार इन्द्रिय निग्रह आदि के उदाहरण मिलते हैं। इस तरह विद्वान अपने समय को बिताते हैं।
इस प्रकार विवेक के साथ पक्षपात रहित सत्यान्वेषण को बुद्धि से जैन सूत्रों का समन्वय करें, तो कहीं पर भी कुछ भ्रम नहीं है । हठाग्रही, परछिद्रान्वेषी, दुर्विदग्धों के लिये तो “शंकास्थान सहस्राणि, मूर्खाणां तु पदे पदे" ऐसा पहले ही नीतिज्ञों ने लिख दिया है। यह लेख तो समाप्त जल्दी नहीं हो रहा है-अभी बहुत कुछ लिखना बाकी रह जोता है परंतु अधिक बढाने में भी कुछ सार नहीं है। समझदार के लिये इतना ही काफी है। अब सिर्फ कोशांबीजी से एक मन्तव्य पर दिग्दर्शन कराकर लेखनी को अवकाश देता हूँ। कोशांबीजी स्वलिखित भगवान् बुद्ध नामक पुस्तक के उत्तरार्द्ध में पृष्ट १०६ पंक्ति १५ में लिखते हैं कि "जैन लोग पृथ्वोकाय, अप्काय, वायुकाय तेउकाय, वनस्पतिकाय और ब्रमकाय के किसी एक जीव को हिंसा में पाप मानते हैं, परंतु
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