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भगवान ने कई एक सूत्रों के अन्दर खुले शब्दों में फरमाया है कि पंचेन्द्रिय का वध करने वाला, मद्य, मांस को सेवन करने वाला नरक गति में जाता है, फिर खुद भगवान् ने मांस सेवन किया और मांस सेवन करके मोक्ष प्राप्त किया यह बात कैसे बन सकती है ?
साधु को शुद्ध एषणीय आहार देते समय पुरे कम्म पच्छा कम्म अर्थात् आहार देने के पहले और आहार देने के बाद सचित्त पानी का भी स्पर्श नहीं होना चाहिये ऐसी अवस्था में रेवती गाथा पत्नी मांस का दान देकर स्वर्ग लोक में जाए और तीर्थंकर गोत्र यह बात किसी सहृदय की बुद्धि में आ सकती है क्या ?
तीसरी बात यह है कि शंका वाले इस सूत्र में कोषों के द्वारा वनस्पति वाचक सभी शब्द मिल रहे हैं, और वे वनस्पतियां भगवान के उस दाहाहि रोग की शांति के लिए उपयोगी थी ऐसा वैद्यक शास्त्र भी बतला रहा है तथा भगवान की प्ररूपणा और प्रकरण से सहमत भी है । ऐसी अवस्था में सबल प्रमाणों को छोड़कर एकदेशीय अर्थ लेके बैठना यह दुराग्रह नहीं तो और क्या होगा ? टीकाकार भी "दुवे कवोया इत्यादि श्रयमाणमेवार्थं केचन मन्यंते" ऐसा लिखकर हठाग्रहियों के अर्थ की उपेक्षा कर देते हैं । और शास्त्र सम्मत जो उनको इष्ट अर्थ है, उसकी विशद व्याख्या कर रहे हैं, यथा-अन्ये त्वाहुः कपोतकः पक्षिविशेषस्तद्वत् ये फले वर्ण साधर्म्यात् ते कपोते कूष्माण्डे कपोतके ते च ते शरीर वनस्पतिदेहत्वात, कपोतक शरीरे, अथवा कपोतक इव धूसरवर्ण साधर्म्यादेिव कपोतक शरीरे, कूष्माण्डफले एव उपसंस्कृते तेहिं नो अट्ठोत्ति बहुपापत्वात् ।
अर्थात कपोत (कबूतर ) पक्षी विशेष का नाम है । उसके शरीर का जो वर्ण है, उस वर्णवाला जो फल, वह भी कपोत कहा जाता है । अतएव कबूतर के रंग के जो दो कूष्मांड ( कोहला ) के
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