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( ३० ) कहा है। अब यहां पर सहृदय व्यक्ति विचार करें कि भगवान के दाह को शांत करने वाला जो कबूतर का शीतल मांस है, उसको तो लाने के लिये निषेध करते हैं, और उनकी प्रकृति को अधिक बिगाड़ने वाले कुक्कुट के मांस को मंगाते हैं, यह बात युक्ति युक्त
और प्रकरण संगत कैसे सिद्ध हो सकती है ? और भगवान का मांस सेवन करना तो उनकी प्ररूपणा. एवं धर्म से एकदम असंगत ही है।
शायद कोई मांसाहारी ऐसा आक्षेप करें, कि मूलपाठ में "मम अटाए" ऐसा पाठ है, इसलिये भगवान् श्राधा कर्मी आहार समझकर कबूतर के मांसको टालते हैं और मार्जार के लिये अथवा मार्जार से मारे हुए कुक्कुट के मांसको बनाया है उसको मंगाते हैं, यह भी उनकी समझ अज्ञान सूचक होगी, क्योंकि अहिंसारूपी लता के संरक्षणार्थ तो ४२ दोषों के घेरे लगाये गये हैं, जब मांस सेवन करके मूल अहिंसा को ही नष्ट कर डालेंगे, तो ४२ दोषों को पाल कर क्या करेंगे ? अतः भगवतीजी सूत्र के मूल पाठका प्ररूपणा-संगत, शास्त्रसंगत, युक्त युक्ति गुरु परम्परासे धारणा के अनुसार यह अंर्थ होता है कि “कवोय" यह शब्द अर्द्ध मागधी भाषा का है, उसका एक अर्थ होता है कबूतर, दूसरा अर्थ होता है कूष्माण्ड (कोहला) देखो पाइय सद्द महएणवो" कोशके पृष्ट २६३ में शरीर कहते हैं देहको, शरीर शब्द का प्रयोग जिस तरह मनुष्य पशु पक्षी में किया जाता है, इसी तरह वनस्पति में भी किया जाता है। देखिये "पन्नवणा सूत्र के शरीर पदको" | अतः कवोय सरीर शब्द का अर्थ हुवा कूष्माण्ड का फल एवं कुक्कुट शब्द भी अर्द्ध मागधी भाषा का ही है उसका एक अर्थ होता है मुर्गा और दूसरा अर्थ होता है बिजौरा वनस्पति उसका मांस अर्थात् गिरी अतः कुक्कुट मंसं इस शब्द का अर्थ गुरु परम्परा से किया जाता है
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