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( २६ ) वध से और (४) मांस का आहार करने से । मांसाहार करना जब नरक गति का कारण होता है, तब उसके सेवन का विधान सिद्धांत में कैसे आ सकेगा ? सेवन का विधान: तो दूर रहा, इस अभक्ष्य पदार्थ (मांस) का मन से चिंतन करने में और वचन से बोलने में भी प्रभुने पापका कारण फरमाया है । देखिये ! श्री सूत्रकृतांग सूत्र के प्राक नामक २२ वे अध्ययन में आद्रक मुनि ने मांसाहारी बौद्ध श्रमणों को ( फटकार देते हुये) जैन श्रमण संस्कृति की सत्य प्ररूपणा इस प्रकार की गई है । जैसेजे यावि भुजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा । मणं न एयं कुसलं करंति,वायावि एसा बुइया उ मिच्छा॥३६॥
' अर्थात्-जो इस प्रकार का यानी मांस का श्राहार करता है, वह पाप को नहीं जानने वाला अनार्य प्राणी है। परन्तु कुशल पंडित मनुष्य मन से भी मांस सेवन का चिंतन नहीं करता है। अगर वचन से बोल दिया तो उस पर भी मिच्छामि दुक्कडं देता है अर्थात् मेरा पाप निष्फल होवे ऐसा पश्चात्ताप करता है। यह निषेधात्मक चौथा प्रमाण है। इसी विषय में निम्न लिखित पांचवा प्रमाण देखिये । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के सातवें अध्ययन में मांस खाने वाला इस भव तथा परभव में दुःखी होता है और अकाल में मरण करके दुर्गति में जाता है ऐसा वर्णन है । जैसे
हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे। भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयंति मन्त्र ॥६॥ कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थीसु।। दुहरो मलं संचिणइ सिसुनागोव्व मट्टियं ॥१०॥
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