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'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' इत्यादि श्री आचारांजी का मूल देखिये । उसका अपनी गुरु परंपरा के अनुसार शुद्ध अर्थ इस प्रकार होता है:
साधु हो या साध्वी हो बहुत गुठली वाली वनस्पतिकायशरीर के मांस अर्थात् गिर ( गूदा ) को एवं बहुत कटक अर्थात् बहुत नसवाली वनस्पति के शाकादिकों के मिलने का अवसर आया- जिसमें खाने का अंश कम है और फेंकने का ज्यादा है, इस प्रकार के बहुत गुठली वाले गिर किंवा बहुत कांटेवाले वनस्पति विशेष का शाक मिले तो उसको नहीं लेना चाहिये । वह साधु अथवा साध्वी गृहस्थ के घर पर भिक्षा के लिये जावें, उस समय गृहस्थ कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! यह बहुत गुठलीवाला गूदा लेने की तुम्हारी इच्छा है क्या ? इस प्रकार का भाषण सुनकर पहले ही कह दे ( पुरूष होतो ) आयुष्मन् ! ( यदि स्त्री होतो ) हे भगिनि ! यह बहुत गुठलीवाला गिर मुझे लेना योग्य नहीं है । अगर तुम्हारी इच्छा होतो जितना देना चाहते हो उतना गूदे का भाग दो, गुठली मत दो, ऐसा कहते हुए भी अगर वह गृहस्थ जबरदस्ती से देने के लिये प्रवृत्त हो, तो उसे अयोग्य समझकर नहीं लेना । शायद उसने पात्रमें डाल ही दिया, तो एक तरफ ले जाना और बगीचे में किंवा उपाश्रय में जहां प्राणियों के अण्डे वगैरह न हों ऐसी जगह पर बैठकर उस गिर और शाकको खाकर गुठलियां और रेसाएं लेकर एकान्त में जाना । वहां जाकर जली हुई जमीन पर, हड्डियों की राशिपर, जिसपर जंग चढा हो ऐसे पुराने लोहे के ढेर पर सूखे हुए गोबर की राशिपर, अथवा इसी प्रकार के दूसरे स्थण्डिल पर अच्छी तरह साफ करके उन गुठलियों को अथवा रेसाओं को संयम पूर्वक रख देना । आज भी स्थानकवासी संदप्राय के साधु साध्वी समुदाय में ऐसी ही प्रथा चली
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