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(२) भावकुतूहलम्
[संज्ञाध्यायःरूपम्" इस वचन प्रकारसे बोधन हुआ कि, देव दानव परब्रह्म स्वरूप जिस शिवका मनमें ध्यान करते हैं तथा (चिदानंद) निराकार केवल प्रकाशमय सत्तामात्र एक आनंदस्वरूप, समस्त जगतोंका उद्धार करनेवाले (सेतु) पुल संसारके उत्पन्न करनेका (हेतु) बीज ऐसे शिवजीके चरणकमलोंका (अधिक लावण्य ) आनंदामतास्वादपरिपूर्ण जो अनुपम कोमलता है उसके (महः) उत्सवपूर्वक प्रणाम करताहूँ ॥ १॥
ग्रन्थकर्तुः प्रतिज्ञा। विचारसंचारचमत्कृतं यन्मतं मुनीनां प्रविलोक्य सारम् ॥ श्रीजीवनाथन विदां हिताय प्रकाश्यते भावकुतूहलं तत् ॥ २॥ जो प्राचीन मुनियोंके अनेक मतोंके ग्रंथ बडे बडे हैं उनमें जब बहुतसा विचार फैलायाजाय तब उसका चमत्कार मिलताहै उसका सारांश देखकर थोडेहीमें वही चमत्कार मिलनेके हेतु विद्वानोंके उपकारार्थ श्रीजीवनाथ ज्योतिर्वित् करके यह भावकुतूहल" प्रकाश किया जाताहै ॥२॥
धात्रोदितं यवनकर्कशशब्दसङ्गादाधिव्यथाविदलितं परमं फलं यत् ॥ मत्कोमलामलरवामृतराशिधारास्नानं करोतु जगतामपि मोदहेतोः ॥३॥
ज्योतिषका परम होराफल जो ब्रह्माआदियोंने कहाथा अर्थात् प्राचीन उत्तम ग्रंथ ऐसे चमत्कारी थे कि, जिनके प्रभावसे ज्योतिषी त्रिकालज्ञ कहाते थे परंतु बीचमें मुसल्मान बादशाह ऐसे मतवादी हुए कि सनातन धर्मसंबन्धी हिंदूधर्ममें अत्यंत अत्याचार किया यहां पर्यंत कि हिन्दुओंके पास जो जो उत्तम ग्रंथ थे, वे बलात्कारसे नष्ट भ्रष्ट कर दिये और “ यथा राजा तथा प्रजा" सर्वसाधारणमें
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