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( १६ ) तब वेदना उत्पन्न होती है । इस के दो भेद हैं: १ साता वदेनीय और २ असाता वदेनीय ।
मोहनीय कर्म-मदिरापान के सदृश है। जिस प्रकार मदिरापान करनेवाले को कृत्याकृत्यका विवेक नहीं रहता है, उसी प्रकार से मोहनीय कर्म के जोर से जीव स्वसत्ता को भूलकर परपरिणति में पड़कर शुभाशुभ कार्य करता है : इस कर्म के मुख्य दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय, २ चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय के ३ भेद हैं: १ मिथ्यात्वमोहनीय, २ मिश्रमोहनीय, ३ सम्यक्त्वमोहनीय। चारित्रमोहनीय के, सोलह कषाय और नव नोकपाय मिलकर, २५ भेद हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायों के अनंतानुबंधी, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और संज्वलन इस प्रकार प्रत्येक के चार चार भेद होनेसे १६ भेद हुए । नव नोकषायों के नाम ये हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगंछा, पुवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद । इस प्रकार चारित्रमोहनीय के २५ भेद और दर्शनमोहनीय के ३ मिलाकर मोहनीय कर्म के २८ भेद हैं। __आठ कर्मों में यह कर्म प्रबल शक्तिशाली है । ग्याररवें उपशांतमोह नामक गुणस्थान में गये हुवे जीव को भी नीचे उतारने में यह मोहनीय कर्म कारणभूत है ।
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