________________
अणुव्रत-दृष्टि ता०५।०५०के हरिजनमें एक लम्बी टिप्पणी करते हुए लिखते हैं-"यद्यपि यह संघ सब धर्मोंके माननेवालोंके लिये खुला है और अहिंसाके सिवाय बाकी सब व्रतोंके नियम उपनियम साम्प्रदायिकतासे मुक्त सामाजिक कर्तव्योंपर निगाह रखकर बनाये गये हैं, लेकिन अहिंसाके नियमोंपर पंथके दृष्टिकोण की पूरी छाप है। उदाहरणके लिये शुद्ध शाकाहार, वह चाहे कितना वाञ्छनीय हो, भारत सहित मानव-समाज की आजकी हालत और रचनाको देखते हुए मांस, मछली, अण्डा आदि से पूरा परहेज करने और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले उद्योगोंसे भी बचे रहनेका व्रत जैनों और वैष्णवोंकी एक छोटीसी संख्या ही ले सकती है। यही बात रेशम और रेशमके उद्योगोंके लिये भी लागू है।"
चार अणुव्रतोंकी संघटना सार्वजनिक असाम्प्रदायिक हो और एक अणुव्रत पर पंथकी छाप लगानेका प्रयत्न किया जाये यह सम्भव भी कैसे माना जा सकता है । इस नियमके पीछे जो दृष्टि है वह नियमकी प्रारम्भिक व्याख्यामें ही स्पष्ट की जा चुकी है । जिज्ञासुजन इसपर पुनः गौर करेंगे।
स्पष्टीकरण औषधि आदिके रूपमें नियम अबाधक है। १७-मद्य न पीना।
नियम और उसका विषय इतना स्पष्ट और सर्वमान्य है कि अधिक ब्याख्याकी आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। इतिहासके पन्ने २ में हमें यह मिलता है कि इस मद्यके कारण कितनी जातियों और कितने राष्ट्रोंका अधःपतन हुआ है और यह तो प्रत्यक्षका विषय है ही कि मद्य कितना उन्मादक और मद्य पीये मनुष्यकी 'क्या-क्या दशा अकसर हुआ करती है। इस मद्यने कितने युवकोंको पथ-भ्रष्ट नहीं कर दिया होगा, कितनोंका जीवन मटियामेट नहीं कर दिया होगा ! आश्चर्य है, तब भी ब्राण्डीके रूपमें सुसज्जित होकर आजकी सुशिक्षित जनताको
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com