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विधान से वे एक दूसरे के प्रतिपक्षी हैं। 'अणुव्रती-संघ' के नियम यहाँ तक कोई बाधा नहीं देते। दूसरों में और उनमें अन्तर यही होगा कि अन्यत्र दो विरोधी कार्यकर्ताओं में मतभेद के साथ मन-भेद भी देखा जाता है, वे एक दूसरे पर वैयक्तिक रूप से भी हमला करते हैं, अनैतिक उपायों तक को काम में ले लेते हैं ; अणुवतियों में परस्पर मतभेद हो सकता है, पर मनभेद नहीं होना चाहिये। उनके वैयक्तिक व्यवहार में कटुता नहीं आनी चाहिए, उनके लिए अनैतिक आचरण उपादेय नहीं होंगे।
इस प्रकार सिद्धान्त-भेद बहुत कारणों से सम्भव है । क्षमा-याचना का प्रयोजन वैयक्तिक कटु व्यवहार से है।
१२-नियमों का निर्माण व स्पष्टीकरण आदि 'संघ-प्रवर्तक' ही करेंगे और वे समस्त अणुव्रतियों को मान्य होंगे। __नियमों के शब्द सबके लिये एक रूप में होते हैं, किन्तु भाव विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न रूप में निकाले जा सकते हैं। यही तो कारण है कि वेदों से, आगमोंसे व तत्प्रकारके अन्याय मूल ग्रन्थों से विभिन्न अर्थ निकालकर विभिन्न सम्प्रदाय चल पड़ते हैं। संगठन में भावों को एक-रूपता रहे, इस दृष्टिकोणसे संघप्रवर्तक-कृत स्पष्टीकरण ही मान्य है, ऐसा इस धारा में बताया गया है।
बहुत लोग स्वार्थवश व अपनी दुर्बलता को निभाने के लिये भी शब्दों को तोड़-मोड़ कर विभिन्न अर्थ निकाल लिया करते हैं । इस धारासे इस वृत्ति का भी अवरोध होगा।
नये नियमों का निर्माण व निर्धारित नियमों में परिवर्धन तो आचार्यवर का प्रमुख लक्ष्य है ही। जैसा कि उन्होंने कई बार स्पष्ट किया है, “इस योजना में मैं चाहता था उतने कड़े नियम नहीं कर पाया क्योंकि जनता का जीवन-स्तर आशातीत नीचा हो रहा है। उसे एकाएक ऊँचा उठाना दुष्कर है । सम्भव उपायों से काम लेना उचित था और
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