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अणुव्रत - दृष्टि
१३ - घर भूमि, सोना-चांदी, धन-धान्य, द्विपद-चौपद तथा घरका सामान और फुटकर वस्तु इत्यादि परिग्रहको परिमाणसे अधिक संग्रह
न करना ।
( अपने-अपने निर्धारित परिमाण संघ - प्रवर्तकको निवेदित करने होंगे )
धन-संग्रहकी वृत्ति आजकी सारी सामाजिक अव्यवस्थाकी जनयित्री है। इसी अव्यस्थाको दूर करनेके प्रयत्न ही मार्क्सवाद आदि दर्शन हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से धन-संग्रहकी लालसा आत्मपतनका अनन्य हेतु है। इसका निरोध करनेके हेतु ही प्राचीन ऋषि, महर्षि व निर्ग्रन्थोंने अपरिग्रहवादका उपदेश दिया। आज भी अधिकांश धर्मगुरु तथा धर्मशास्त्र मानव-समाजका ध्यान इस ओर आकर्षित करते रहते हैं । अणुव्रतीसंघ इस विषय में जो संकेत करता है उसका प्रारम्भिक नियम यह है । अणुव्रत सिद्धान्त कहता है- “प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओंको सीमित करे, पूंजीवाद जैसी कोई समस्या ठहर नहीं सकती।” अणुव्रती - संघका अंतिम ध्येय होगा, व्यक्तिकी आवश्यकताओं पर निश्चित नियंत्रण कर देना । तत्पश्चात् उस नये अणुव्रती - समाजमें आर्थिक विषमताको सम्भवतः कोई स्थान नहीं रहेगा । किन्तु यह कल्पना कबतक मूर्त रूप लेगी यह भविष्यपर निर्भर है ।
कल्पनाका प्रारम्भिक स्वरूप उक्त नियममें प्रस्फुटित हुआ है। इसके अनुसार प्रत्येक अणुव्रतीको अपनी लालसा जीवन भरके लिये सीमित कर लेनी होगी और वह सीमा संघ प्रवर्तकको निवेदित कर देनी होगी । इससे धन-संग्रह करनेकी उत्कट अभिलाषाका निरोध होगा। आजकी स्थिति में अन्य किसी व्यवहारिक मार्गकै अभावमें यह नियम वस्तुतः उपयोगी होगा ।
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