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अनुकम्पा
जीवन बड़ा दुःखमय है, इसमें कहीं त्राण नहीं। पर मनन करने पर ज्ञात होता है कि एक और सुख है, एक और महान् सुख है जो वास्तविक एवं शाश्वत है । इसी सुख को प्राप्त करना मनुष्य मात्र का लक्ष्य होना चाहिये। ऐसे सुख को आनन्द या आत्मानन्द कहना स्पष्टता के लिये उपयोगी होगा ।
आनन्द या आत्मानन्द को एक उदाहरण से अच्छी तरह स्पष्ट किया जा सकता है। एक बेकार मनुष्य नौकरी की तलास में घूम रहा है। उसे सूचना मिलती है कि एक व्यवसायिक ने उसे जगह देने का वचन दिया है। बेकार मनुष्य चट खिल उठता है । यह खुशी का श्रोत कहाँ से फूट निकलता है ? उस मनुष्य को इस खबर से कोई आर्थिक या अन्य लाभ अभी तक नहीं हुआ है, और शायद, जब हम पद-पद पर अनकल्पित घटनाओं को होते देखते हैं, तो हो ही न । अतः अल्पचिंतन पर हो यह निश्चित होता है कि इस खुशी का उद्गम विश्वास में है । इस विश्वास में बेकार अवस्था से मुक्त होने की आशा है । चिन्ता के एक बंधन से मुक्त होने के कारण सुख का विलास है । पर विवेक शून्य प्राणी प्रायः चिन्ता के एक बंधन से मुक्त हुआ तो और अनेक चिन्ताओं का जाल बुनकर अपने लिये तैयार कर लेता है। तथा चिन्ता मुक्ति का सुख दुगुने दुःख में बदल जाता है । प्राणी चिन्ता के एक-एक तार को अलग रूप से तोड़ फेंकने में समर्थ है पर जब एक तार टूटने के पहले दो तारों में उलझते चले जाने का क्रम चालू रहता है तो वह मकड़ी के भीने ताने-बाने में फंसी हुई मक्खी की तरह उलझा
जाता है। पर इस सत्य को समझ कर जीव जब नूतन बंधनों की सृष्टि करना रोक देता है तो क्रमसर वह सर्व चिन्ता एवं बंधनों से मुक्त हो जाता है। नौकरी पाने की खुशी और मुक्तावस्था के इस सुख में कितना अन्तर है - यह कल्पना की ऊंची से ऊंची उड़ान से भी नहीं जाना जा सकता है ।
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