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Ātmānuśāsana
आत्मानुशासन
अशेषमद्वैतमभोग्यभोग्यं निवृत्तिवृत्त्योः परमार्थकोट्याम् । अभोग्यभोग्यात्मविकल्पबुद्ध्या निवृत्तिमभ्यस्यतु मोक्षकांक्षी
॥२३५॥
अर्थ - यह समस्त संसार एकरूप है - वास्तव में भोग्य और अभोग्य की कल्पना से रहित है। फिर भी वह प्रवृत्ति और निवृत्ति की अत्यधिक प्रकर्षता में प्रवृत्ति की अपेक्षा भोग्य और निवृत्ति की अपेक्षा अभोग्य होता है। जो भव्य प्राणी मोक्ष की इच्छा करता है उसे भोग्य और अभोग्यरूप विकल्पबुद्धि से निवृत्ति का अभ्यास करना चाहिये।
The whole world is essentially one; segregation of its objects in terms of agreeable and disagreeable is just in the mind. Mental association (pravrtti) for an object
makes it agreeable, and dissociation (nivrtti) disagreeable. The worthy soul who desires liberation should practise withdrawal from mental segregation of objects in terms of agreeable and disagreeable. (see also verse 180, p. 148, ante)
निवृत्तिं भावयेद्यावन्निवृत्त्यं तदभावतः । न वृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥२३६॥
अर्थ - जब तक छोड़ने के योग्य शरीरादि बाह्य वस्तुओं से सम्बन्ध है तब तक निवृत्ति का विचार करना चाहिये और जब छोड़ने के योग्य कोई वस्तु शेष नहीं रहती है तब न तो प्रवृत्ति रहती है और न निवृत्ति भी। वही अविनश्वर मोक्षपद है।
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