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Verses 166, 167, 168
Even a child, apprehending injury, is fearful of falling down from his elevated bedstead. It is, however, highly surprising that the 'wise' ascetic is not fearful of falling down, on his own doing, from the high of austerities (tapa), higher than the summit of the three worlds.
विशुद्ध्यति दुराचारः सर्वोऽपि तपसा ध्रुवम् । करोति मलिनं तच्च किल सर्वाधरः परः ॥१६७॥
अर्थ - जिस तप के द्वारा नियमतः सब ही दुष्ट आचरण शुद्धि को प्राप्त होता है उस तप को भी दूसरा निकृष्ट मनुष्य मलिन करता है।
The austerities (tapa), as a rule, purify evil-conduct. The other wretched man (the ascetic) defiles even these austerities (tapa).
सन्त्येव कौतुकशतानि जगत्सु किं तु विस्मापकं तदलमेतदिह द्वयं नः। पीत्वामृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्याः संप्राप्य संयमनिधिं यदि च त्यजन्ति ॥१६८॥
अर्थ - लोक में आश्चर्यजनक सैकड़ों कौतुक हैं, परन्तु उनमें से ये दो कार्य हमें अत्यधिक आश्चर्यजनक प्रतीत होते हैं। प्रथम तो आश्चर्य हमको उन पर होता है जो कि पहले तो अमृत का पान करते हैं और
पाठान्तर - सर्वाधरोऽपरः
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