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Pravacanasāra
सामान्यार्थ - [ एष वर्धमानं प्रणमामि ] यह जो मैं “अपने अनुभव के गोचर ज्ञान-दर्शन-स्वरूप" कुन्दकुन्दाचार्य हूँ, सो श्रीवर्धमान जो देवाधिदेव परमेश्वर परमपूज्य अंतिम तीर्थंकर उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं श्रीवर्धमान तीर्थंकर? [सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं] विमानवासी देवों के, पाताल में रहने वाले देवों के और मनुष्यों के स्वामियोंकर नमस्कार किये गये हैं इस कारण तीन लोककर पूज्य हैं। फिर कैसे हैं? [धौतघातिकर्ममलम् ] धोये हैं चार घातिया-कर्मरूप मैल जिन्होंने इसलिये अनन्तचतुष्टय [अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख] सहित हैं। फिर कैसे हैं? [ तीर्थं ] तारने में समर्थ हैं अर्थात् भव्यजीवों को संसार-समुद्र से पार करने वाले हैं। फिर कैसे हैं? [धर्मस्य कर्तारम् ] शुद्ध आत्मीक जो धर्म है उसके कर्ता अर्थात् उपदेश देने वाले हैं। [पुनः ] फिर मैं कुन्दकुन्दाचार्य [ शेषान् तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् ] शेष जो तेईस तीर्थंकर, और समस्त अतीतकाल के सिद्धों सहित, उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं तीर्थंकर और सिद्ध? [विशुद्धसद्भावान्] निर्मल हैं ज्ञान-दर्शनरूप स्वभाव जिनके। जैसे अन्तिम अग्निकर तपाया हुआ सोना अत्यन्त शुद्ध हो जाता है उसी तरह निर्मल स्वभाव सहित हैं। [च श्रमणान् ] फिर आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं? [ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य हैं आचरण जिनके, अर्थात् ज्ञानादि में सदैव लीन रहते हैं, इस कारण उत्कृष्ट शुद्धोपयोग की भूमि को प्राप्त हुए हैं। इस गाथा में पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार किया है। [च ] और मैं कुन्दकुन्दाचार्य [ मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान् ] मनुष्यों के रहने का क्षेत्र जो ढ़ाई द्वीप (जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और आधा पुष्करद्वीप) उसमें रहने वाले जो जो अर्हन्त हैं [ तान् तान् सर्वान् अर्हतः ] उन उन सब अर्हन्तों को [ समकं समकं प्रत्येकं एव प्रत्येकम् ] सबको एक ही समय अथवा हर एक को काल के क्रम से [वन्दे ] नमस्कार करता हूँ। [साम्यं उपसम्पद्ये] मैं ग्रन्थकर्ता शान्त भाव जो वीतराग-चारित्र उसको स्वीकार करता हूँ। क्या करके? [ अर्हद्भयः नमः कृत्वा ] अर्हन्त जो अनन्तचतुष्टय सहित
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