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causes the bondage of karma. Note that earlier verse (gāthā) 32 expounds that the Omniscient soul sees and knows all objects-ofknowledge (jñeya), but neither accepts nor rejects these objects-ofknowledge; these do not transform the soul. Subsequently, verse (gāthā) 43 expounds that the soul with delusion (moha ), attachment (rāga) and aversion (dvesa), engenders four kinds of karmic-bondage (karmabandha) on fruition of karmas.
This completes discussion on the knowledge (jñāna).
अस्थि अमुत्तं मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु । णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ।।1-53॥
अस्त्यमूर्तं मूर्तमतीन्द्रियमैन्द्रियं चार्थेषु ।
ज्ञानं च तथा सौख्यं यत्तेषु परं च तत् ज्ञेयम् ॥1-53॥
प्रवचनसार
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सामान्यार्थ – [ अर्थेषु ] पदार्थों में [ अतीन्द्रियं ] इन्द्रियों की आधीनता से रहित [ज्ञानं ] ज्ञान है वह [ अमूर्तं ] अमूर्तीक है [ च ] और [ ऐन्द्रियं ] इन्द्रिय-जनित ज्ञान [ मूर्तं ] मूर्तीक [ अस्ति ] है [ च तथा ] और इसी तरह [ सौख्यं ] सुख भी है। अर्थात् जो इन्द्रिय बिना सुख का अनुभव है वह अतीन्द्रिय, अमूर्तीक सुख है और जो इंद्रिय के आधीन सुख का अनुभव है सो इन्द्रिय-जनित मूर्तीक सुख है । [च] और [ तेषु ] उन ज्ञान-सुख के भेदों में [ यत् ] जो [ परं ] उत्कृष्ट है [ तत् ] वह [ ज्ञेयं ] जानने योग्य है।
The knowledge of objects that is independent of the senses - atīndriya jñāna - is without form - amūrtīka. The knowledge of objects that is dependent on the senses - indriya jñāna - is with form mūrtika. The same applies to happiness; the senseindependent happiness is without form, and the sense
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