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ज्ञानघारा weeeggiereispieleelaie सो वज्र है", वह ही महत्त्वपूर्ण पद है। स्वर्गलोक के देवता भी तप के आकांक्षी होते हैं। जैनदर्शन यह मानता है कि देवगति या स्वर्ग के देव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। मुक्ति तो मात्र मानवी तप के द्वारा कर सकता है। कर्म को बज्र के समान कठोर माना है और उस कठोरता से मुक्ति मात्र तप ही द्वारा ही संभव है। तभी तो कहा है कि तीर्थंकर केवली कर्मों की निर्जरा तप से ही कर सकते हैं। तत्वार्थ सूत्र में कहा है 'तपसा च निर्जरा' तपसे ही कर्मों की निर्जरा या नाश होता है। जब शुद्धता के साथ राग-द्वेषमयी कर्मों का आश्रव होता है जिससे पाप का घोर बंध होता है और राग से पुण्य का भी बंध होता है। पर, मुक्ति मार्ग में दोनो बाधक होने से तप द्वारा इन दोनों राग-द्वेष का या पाप-पुण्य का क्षय करने मैं भी तप ही कारणभूत होता है।
जब व्यक्ति इस देह और आत्मा के भेद को समझ लेता है तब उसमें से उसका भूख-प्यास सभी पर अधिकार होने लगता है। संक्षेप में व्यक्ति इन्द्रियों के जाल को तोड़ पाता है। वह निश्चय आत्मा की ओर ध्यानस्थ होने लगता है । उसे उष्ण देश आदि परीषह ( २२ परीषह) सहज करने की शक्ति प्राप्त होने लगती है।
'तप' में तपाना और खपाना महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैसे अशुद्ध सोने को तपा-तपाकर उसे कुन्दन बना दिया जाता है, उस पर जमा कीट नष्ट कर दिया जाता है वैसे ही आस्था पर लगे कीट को तपा कर कर्मों को खपाया जाता है। यही है कर्म विमुक्ति । 'तपस्वी' तप रूपी अग्नि में कर्म की निर्जरा कर मुक्ति को प्राप्त करता है।
यहाँ पर स्पष्टता और करती है। तप एक होता है सकाम तप रुप दूसरा निष्काम तप । सकाम तप में लोकसिद्धि और प्रसिद्धि का मोह रहता है। इसमें मंत्र-तंत्र आदि मैली विद्याओं के माध्यम से अग्नि, तप, जलतप आदि होते हैं जो वास्तव में कुध्यान के ही प्रकार हैं- मात्र चमत्कार है। जबकि निष्काम तप में कोई लौकिक ऐषणा नहीं होती। एक मात्र कर्म निर्जरा कर भवभ्रमण से मुक्ति का भाव होता है। यही वास्तव में धर्मध्यान से क्रमशः शुक्ल ध्यान में ले जाने वाला तप है।
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ओ तपसम्राट गुरुदेव ! स्वीकारो ! अम काव्यांजलि
- पू. मीराजी महासतीजी (चंडीगढ़)
जन्म शताब्दी के अवसर पर भाव-पुष्प चढातें हैं, ललित गुरुणी अन्तरिक्ष से शताब्दी वर्ष मनाते हैं। बीज अंकुरित होता है, जब सारा पोष मिलता है, वैराग्य बीज पनपता है जब योग्य गुरु मिल जाता है। बावडी था गाम जिनका, रतिलालजी नाम, सब बच्चों में शिरमोर थे, सदगुणों के धाम । देख लिया जब श्वेत वस्त्र में एक मनोहर रुप, अपना अस्तित्व खो दिया, पाया गुरु अनुप ।
गुरु प्राण के श्री चरणों में नतमस्तक हो जाए, अपने नयन से अश्रुधारा उन चरणों में बह जाए । सद्गुरु के कर स्पर्श से, धन्य धन्य बन जाए, सर्वस्व समर्पित करके चरण में, दिक्षीत भी हो जाए ।
जन्म जन्म के प्रेम बंधन में गुरु-शिष्य बंध जाए, चर्म ययन से गुरुमूर्ति को, अंतरतल में पाए
ऐसा प्रेम न देखा कही भी गुरु प्राण में जो भी देखा, अंतरमन प्लावित हुआ जब गुरु प्रेम प्रसाद को चखा ।
गुरु मिलन की तडपन ही, बन जाती है अनोखी तपस्या, जैसे तृषित मुसाफिर पर बादल जोरो से बरसा ।
गुरु प्राण ही प्राण है जिनके, जिनके सब कुछ प्राण, भीतर-बाहर प्राण ही प्राण है, जिनके बिना न प्राण । मनुज में जो प्राण न होता, जीवन है निष्प्रण, गुरु मिलन और आगमन से, भर जाता है प्राण । गुरु चरण के धरा पर ही गुरु मंत्र मिल जाए, गुरु चरण में स्थान मिले तो जीवन धन्य बन जाए ।
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