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--- पुण्य-पाप तत्त्व
थावरदस वन्नचउक्क घाइपणयालसहिय बासीई। पावपयडित्ति दोसुवि, वन्नाइगहा सुहा-असुहा।।17।।
अर्थ-सुरत्रिक (देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु) मनुष्यत्रिक (मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु), उच्च गोत्र, सातावेदनीय, त्रसदशक (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति) औदारिक-वैक्रिय-आहारक -तैजस-कार्मण शरीर, अंगोपांगत्रिक (औदारिक अंगोपांग, वैक्रि य अंगोपांग, आहारक अंगोपांग), वज्रऋषभनाराच-संहनन, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थङ्कर, निर्माण। तिर्यंच आयु, शुभ वर्णचतुष्क (वर्ण, गंध, रस, स्पर्श) पंचेन्द्रिय जाति और शुभ विहायोगति, ये पुण्य की 42 कर्म प्रकृतियाँ हैं।
-पंचम कर्मग्रन्थ -पंचसंग्रह 3/21, 22, गोम्मटसार कर्म काण्ड गाथा 41, 42, 43 पहले संस्थान व संहनन को छोड़कर 5 संस्थान तथा 5 संहनन, अशुभ विहायोगति, तिर्यंचगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी, असातावेदनीय, नीचगोत्र, उपघात, एकेन्द्रिय, विकलत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु), स्थावर दशक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति) अशुभ वर्णचतुष्क (अशुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श) घाती कर्मों की 45 प्रकृतियाँ (ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 9, मोहनीय 26, अंतराय 5) ये 82 पाप की प्रकृतियाँ हैं।
स्थितिबंध-जीव के साथ कर्मों के रहने की मर्यादा को स्थितिबंध कहते हैं। पुण्य-पाप कर्मों का स्थिति बंध इस प्रकार हैं