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पाप-पुण्य का आधार : संक्लेश-विशुद्धि ---
यदि उदयमान अधिक कषाय को संक्लेश तथा न्यून कषाय को विशुद्धि माना जाय तो कृष्ण लेश्या वाले जीवों के सदैव कषाय का उदय अधिक तथा शुक्ल लेश्या वाले जीवों के कषाय का उदय कम रहता है। अत: कृष्ण लेश्या वाले जीवों के सदैव संक्लेश की विद्यमानता और विशुद्धि का अभाव मानना होगा। विशुद्धि का अभाव होने से उनके पुण्य आस्रव का ही अभाव मानना होगा जो कर्म सिद्धान्त व आगम के विरुद्ध है। इसी प्रकार शुक्ल लेश्या वाले जीवों के सदैव विशुद्धि की ही मौजूदगी (सद्भाव)
और संक्लेश का अभाव मानना होगा जो आगम विरुद्ध है। तात्पर्य यह है कि जैनागम में उदयमान कषाय में वृद्धि होने को अर्थात् हीयमान व गिरते परिणामों को संक्लेश, पाप तत्त्व, अशुद्धोपयोग तथा पापास्रव का कारण कहा है तथा उदयमान कषाय में हानि होने को अर्थात् शुद्धता की ओर बढ़ते वर्धमान परिणामों को विशुद्धि, शुद्धोपयोग (पुण्य तत्त्व) तथा पुण्यास्रव का कारण कहा है।
___ समस्त संसारी जीवों के वीतराग होने के पहले सदैव पुण्य और पाप इन दोनों का आस्रव तथा बंध होता रहता है। अत: सब जीवों के सदैव संक्लेश-विशुद्धि दोनों मानना होगा। परन्तु यहाँ पर सामान्य से होने वाला यह पुण्य-पाप का आस्रव व बंध अपेक्षित व इष्ट नहीं है। प्रत्युत पुण्यपाप कर्म का आस्रव व अनुभाग जो पहले हो रहा था उसमें वृद्धि होने से है। कषाय में हानि होने रूप परिणामों की विशुद्धि से पुण्यासव में तथा बध्यमान एवं सत्ता में स्थित पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है और पाप प्रकृतियों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होने से भी पुण्य प्रकृतियों के प्रदेशों में वृद्धि होती है।
इसी वृद्धि को पुण्य का उपार्जन कहा है और विशुद्धि को इसका हेतु कहा है। इसी प्रकार कषाय में वृद्धि होने रूप संक्लेश परिणामों से