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--- पुण्य-पाप तत्त्व
संक्लेश की तीव्रता से होने वाला योग अशुभ है। जैसे अशुभ योग के समय प्रथम आदि गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय आदि सभी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासंभव बंध होता है वैसे ही छठे आदि गुणस्थानों में शुभयोग के समय भी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासंभव बंध होता है। फिर शुभ योग का पुण्य बंध के कारण रूप में और अशुभ योग का पाप बंध के कारण रूप में अलग-अलग विधान कैसे संगत हो सकता है? इसलिए प्रस्तुत विधान मुख्यतया अनुभाग बंध की अपेक्षा से है। शुभ योग की तीव्रता के समय पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग बंध (रस) की मात्रा अधिक और पाप प्रकृतियों के अनुभाग की मात्रा अल्प निष्पन्न होती है। इससे उल्टे अशुभ योग की तीव्रता के समय पाप-प्रकृतियों का अनुभाग अधिक और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बंध अल्प होता है। इसमें जो शुभयोगजन्य पुण्यानुभाग की अधिक मात्रा तथा अशुभयोगजन्य पापानुभाग की अधिक मात्रा है, उसे प्रधान मानकर सूत्रों में अनुक्रम से शुभ योग को पुण्य का और अशुभ योग को पाप का कारण कहा गया है। शुभयोग जन्य पापानुभाग की अल्पमात्रा और अशुभयोग जन्य पुण्यानुभाग की अल्प मात्रा विवक्षित नहीं है। क्योंकि लोक की भाँति शास्त्र में भी प्रधानतापूर्वक विचारणीय व्यवहार का विधान प्रसिद्ध है।"
__पं. श्री सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन 6 सूत्र 4 की टीका में कहा है-“पुण्य-पाप दोनों द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के हैं। शुभ कर्म पुद्गल द्रव्य-पुण्य और अशुभ कर्म पुद्गल द्रव्य पाप है। इसलिए द्रव्य पुण्य तथा पाप बंध-तत्त्व में अंतर्भूत है, क्योंकि आत्म-सम्बद्ध कर्म पुद्गल या आत्मा और कर्म पुद्गल का सम्बन्ध विशेष ही द्रव्यबंध है। द्रव्य पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय जो भाव पुण्य है और द्रव्य पाप का