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पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं ----
------ 27 मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन इन पापों से निवृत्त होने को ही अनास्रव कहा है। यहाँ भी अनास्रव के लिए पुण्य का निषेध नहीं किया है। गाथा तीन में भी पाँच समिति (सद्प्रवृत्ति) तीन गुप्ति, अकषाय, जितेन्द्रियता आदि से अनास्रव होना कहा है, जबकि इन सबसे पुण्य का उपार्जन होता है। अकषाय से अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ के त्याग से क्रमश: सातावेदनीय, उच्चगोत्र, शुभ नामकर्म और शुभ आयु कर्म इन चारों कर्मों का अर्थात् पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है, ऐसा भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9 में कहा है। तात्पर्य यह है कि जैनागमों में पाप को त्याज्य कहा गया है पुण्य को नहीं।
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