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पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं
इस जीवन में किए हुए सत्कर्म इस जीवन में भी शुभ (सुखदायी ) फल देने वाले होते हैं। इस जीवन में किए हुए सत्कर्म अगले जीवन में भी शुभ (सुखदायी) फल देने वाले होते हैं।
- स्थानांग 4.2
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जह वा विसगंडूस कोई घेत्तूण नाम तुण्डिक्को । अण्णेण अदीसंतो किं नाम ततो न व मरेज्जा ।। जिस प्रकार कोई लुक छिपकर विष पी लेता है, क्या वह विष से नहीं मरेगा? अवश्य मरेगा । उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है तो क्या वह पाप उसके लिये घातक नहीं होगा ? अवश्य होगा।
- सूत्रकृतांग, निर्युक्ति गाथा 52
सकम्मुणा विप्परियासमुवेइ।
प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से दु:ख पाता है।
-सूत्रकृतांग 1.7.11
तुट्टंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ ।।
जो नये कर्म नहीं करता है अर्थात् संवर करता है उसके पूर्वबद्ध पाप कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
-सूत्रकृतांग 1.15.5
कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ।।
कर्म सदा कर्त्ता का ही अनुगमन करते हैं अर्थात् कर्म का बंधकर्ता के भावों के अनुसार ही होता है।
अणुमित्तो वि न कस्सई, बंधो परवत्थुपच्चओ भणिओ। पर (बाह्य) वस्तु के आधार पर किसी को अणुमात्र भी कर्म बंध नहीं होता है, (कर्म बंध अपनी भावना के आधार पर ही होता है)।
-ओघनिर्युक्ति, 57