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________________ 16 ------ --- पुण्य-पाप तत्त्व प्राप्ति के लिए इन दुष्कर्मों को, दोषों को, पापों को अपनाते हैं। साथ ही साथ दुःख भी पाते रहते हैं। इस प्रकार विषय-सुख के साथ दुःख भोगते हुये अनन्त काल बीत गया, परन्तु न तो विषय-सुख की पूर्ति हुई और न दु:ख से मुक्ति मिली। यदि हम आगे भी विषय-सुख के आधीन हो ऐसा ही करते रहेंगे तो आगे भी हमारी यही स्थिति रहेगी। हमें जो सुख मिलेगा वह तो क्षणिक होने से नहीं रहेगा और हम दु:ख पाते ही रहेंगे। मानवजीवन दु:ख रहित होने के लिए मिला है, यही इस जीवन की विशेषता है। अत: यदि हमने दु:ख रहित सुखमय जीवन नहीं जीया तो समझना चाहिये कि हमारा जीवन व्यर्थ ही गया, कारण कि सुख-दुःख युक्त जीवन तो पशु भी जीता है, फिर हमारे में पशु के जीवन से क्या विशेषता आई। अत: हम विषय-सुखों एवं इनसे जुड़े हुए दुष्कर्मों-पापों का त्याग कर अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुखमय जीवन जीयें, इसी में हमारे जीवन की सार्थकता तथा सफ लता है। मानव विषय-सुख का त्याग कर जिस क्षण चाहे उसी क्षण अव्याबाध, अनंत सुख का आस्वादन कर सकता है। त्याग के लिए वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, स्थान, समय, अभ्यास, श्रम आदि किसी की भी आवश्यकता या अपेक्षा नहीं है, अत: मानव त्याग करने में समर्थ और स्वाधीन है। फिर भी त्याग को न अपनाकर दुःखी रहे, यह कितने आश्चर्य की, कितनी खिन्नता की बात है; कितनी करुणाजनक और अशोभनीय स्थिति है। वस्तुत: त्याग ही जीवन है, विषय भोग ही मृत्यु है। जितनाजितना त्याग बढ़ता जायेगा उतना-उतना पाप घटता जायेगा। त्याग का बढ़ना और पाप का घटना युगपत् है। अत: पाप के त्याग से ही शांति व मुक्ति के शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। 000
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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