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________________ 10 पुण्य-पाप तत्त्व कर दी जाय, चैन नहीं पड़ता है। जब पैर की अंगुली में एक काँटा चुभने से भी इतनी पीड़ा होती है तो पूरी अंगुली काटने में कितनी भयंकर पीड़ा होती है, इसे तो भुक्तभोगी ही जान सकता है । अंगुली से भी अधिक भयंकर पीड़ा पैर का फाबा काटने में होती है। उससे भी भयंकर पीड़ा पूरे पैर को काटने में होती है। उससे भी भयंकर अनेक गुणी वेदना पूरे शरीर को मारने में होती है। उस समय मरने में जो असह्य भयंकर पीड़ा होती है उसका तो हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। अपने प्रति किये गये जिस कार्य को हम बुरा समझते हैं वही कार्य जब हम दूसरों के प्रति करते हैं तो क्या हमारा वह कार्य बुरा नहीं होगा ? अवश्य होगा और बुरा कार्य करने वाला व्यक्ति बुरा होता ही है, अत: हम भी बुरे हो ही गये। यह सर्वमान्य है कि बुरा होना, बुरा कहलाना किसी को भी पसंद नहीं है। बुराई को सभी त्याज्य मानते हैं। अत: इस सर्वमान्य सिद्धान्त को स्वीकार कर हिंसा की बुराई जो सबसे भयंकर पाप है, इससे बचना चाहिये। इसी में हमारा व सबका हित है । अत: सभी का हित ‘जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त को स्वीकार करने में है। यही भगवान महावीर का उपदेश है। शरीर के किसी भी एक अंग को क्षति या हानि पहुँचना भयंकर हानि है। कारण कि शरीर का प्रत्येक अंग बहुमूल्य है। किसी गरीब व्यक्ति से भी कहें कि तुम दो लाख रुपये ले लो और अपनी दोनों आँखें दे दो तो वह इस प्रस्ताव को स्वीकार न करेगा। इससे यह परिणाम निकला कि उसकी आँखों का मूल्य दो लाख रुपये से भी अधिक है। जब आँखों का ही मूल्य दो लाख रुपये से अधिक है तो पूरे शरीर का मूल्य तो कितना अधिक होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हम किसी को करोड़ों, कितने ही रुपये दें तब भी वह अपना शरीर देने को तैयार नहीं होगा। इससे अरबों या
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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