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________________ 256 --- पुण्य-पाप तत्त्व बंध एवं उदय निरंतर होता रहता है। अत: पुण्यानुबंधी पुण्य-पाप एवं पापानुबंधी पुण्य-पाप रूप चौकड़ी में पुण्य के उदय का संबंध साता वेदनीय के उदय से और पाप के उदय का संबंध असाता वेदनीय के उदय से है और अनुभाग का संबंध संक्लेश विशुद्धि भाव से है। विशुद्धि भाव से होने वाले कर्म बंध को पुण्यानुबंधी कहा गया है एवं संक्लेश भाव से होने वाले कर्म बंध को पापानुबंधी कहा गया है। पुण्य के फल से पाप का बंध मानना अथवा पाप के फल से पुण्य का बंध मानना भूल है। साता वेदनीय के उदय में विशुद्धि भाव का होना पुण्यानुबंधी पुण्य है और असातावेदनीय के उदय में विशुद्धि भाव का होना पुण्यानुबंधी पाप है। पुण्यानुबंधी इसलिये कहा गया है कि इससे सभी पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है। सातावेदनीय के उदय में संक्लेश भाव का होना पापानुबंधी पुण्य और असाता वेदनीय के उदय में संक्लेश भाव का होना पापानुबंधी पाप है। संक्लेशभाव को पापानुबंधी इसलिये कहा गया है कि इससे पाप के अनुभाग में वृद्धि होती है। विशुद्धि रूप शुभ भाव ही पुण्य है। विशुद्धि से कषाय घटता है, जिससे आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुणों का आवरण दूर होता है और इन गुणों का प्रकटीकरण होता है, जिससे प्राणों का विकास
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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