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________________ सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम --------- -----233 अनन्त सुख कामना-ममता के त्यागने पर शरीर व संसार से तादात्म्य या अहंभाव मिट जाता है, जिसके मिटते ही राग-रहित वीतराग अवस्था का अनुभव होता है। राग-रहित होते ही अनन्त प्रेम का प्रादुर्भाव होता है, फिर प्रेम का रस सागर की लहरों की तरह लहराता है, सदैव उमड़ता रहता है, इस रस की न तो क्षति होती है, न निवृत्ति होती है, न पूर्ति होती है, न अपूर्ति होती है, न तृप्ति होती है, न अतृप्ति होती है। यह सुख क्षतिरहित होने से अक्षय, निवृत्त नहीं होने से अव्याबाध, पूर्ति-अपूर्ति रहित होने से अखंड-पूर्ण एवं तृप्ति-अतृप्ति रहित होने से अनन्त नित्य नूतन होता है। यह विलक्षण रस है, अत: बुद्धिगम्य नहीं होकर अनुभव गम्य है। अनन्त वैभव व सम्पन्नता ___ मैत्रीभाव या प्रेम की प्राप्ति वहीं होती है जहाँ स्वार्थपरता नहीं है। जहाँ स्वार्थपरता है वहाँ दृष्टि अपने ही सुख पर रहती है, भले ही इससे दूसरों का अहित हो या उन्हें दु:ख हो। इससे संघर्ष और संताप उत्पन्न होता है। स्वार्थी व्यक्ति सिमट या सिकुड़ कर एक संकीर्ण से, छोटे-से घेरे में आबद्ध हो जाता है। उसकी संवेदनशीलता तिरोहित हो जाती है। उसके हृदय में क्रूरता, कठोरता व जड़ता आ जाती है। फिर वह हिंसक पशु से भी निम्न स्तर वाला दानव का जीवन जीने लगता है। पशु के समान ही इन्द्रिय भोग तो भोगने ही लगता है साथ ही अमानवीय अधम व्यवहार भी करने लगता है और परिणाम में भयंकर दु:ख भोगता है। इसके विपरीत जो प्राप्त सामग्री, योग्यता, बल का उपयोग उदारतापूर्वक दूसरों के हित में करता है उसे इस सेवा से जो प्रसन्नता या सुख मिलता है, वह निराला ही होता है। यह सुख प्रतिक्षण क्षीण होने वाला नहीं होता है, अक्षुण्ण या अक्षय रस वाला होता है। यही कारण है कि जब-जब उसे पूर्वकृत सेवा
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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