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________________ 228 पुण्य-पाप तत्त्व का उपयोग अपने निकटवर्ती जीवों के हितार्थ करता है। मार्दव स्वभाव वाले व्यक्ति के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति मृदुता, मधुरता, आत्मीयता, प्रीति का भाव जागृत होता है। उसके हृदय में निकटवर्ती प्राणियों को सुखी देखकर प्रमोद भाव जागृत होता है। उसका अहं गल जाता है और प्रीति भाव जागृत हो जाता है। उस प्रीति का सुख सदा उमड़ता रहता है, वह प्रीति के सुख का उपभोग करता रहता है। इससे उसकी विषय भोगों के उपभोग की कामनाएँ गल जाती हैं, जो उपभोगान्तराय के क्षय में हेतु हैं। सरलता गुण से निष्कपटता, हृदय में शुद्धता आती है, जिससे मैत्री भाव जागृत होता है, ममता भाव गलता है। ममता वहीं होती है जहाँ किसी से कुछ सुख पाने की इच्छा होती है। मैत्री में सुख देने की भावना होती है, सुख पाने की नहीं। मित्र सभी को भला लगता है, अच्छा लगता है, सुंदर लगता है। मित्रता से हृदय में सरसता आती है, सरसता से नीरसता मिट जाती है। नीरसता के मिटने से भोगों की कामना उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि नीरसता की भूमि में ही कामना की उत्पत्ति होती है। भोगों की कामना उत्पन्न न होना ही भोगांतराय का क्षय होता है। अत: सरलता गुण से भोगांतराय का क्षय होता है और सर्व प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव होता है। उसका हृदय सरस रहता है। मैत्रीभाव से माया कषाय का क्षय होता है, क्योंकि मित्रता का नाश माया कषाय से ही होता है। जैसा कि कहा है - " माया मित्ताणि नासे । " -दशवैकालिक सूत्र 8.37 जब वि सुख की लोलुपता, लालसा व प्रलोभन मिट जाते हैं तब संसार में कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। पाना शेष न रहने से वस्तु, भोग, उपभोग आदि की कामना शेष नहीं रहती है। कामना शेष न रहने से अभाव का अभाव हो जाता है। यही दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय का क्षय है, सच्ची सम्पन्नता है। पाना शेष न रहने से करना
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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