SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 206--- --- पुण्य-पाप तत्त्व होना श्रेष्ठ सेवा है। शरीर आदि प्राप्त वस्तुओं की ममता, अप्राप्त वस्तुओं की कामना एवं अभिमान रहित होना ही वास्तविक त्याग है। सद्प्रवृत्ति रूप सेवा करने और दुष्प्रवृत्ति का त्याग करने में ही प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग है। परिस्थितियों के सदुपयोग से पाप का निरोध (संवर) और निर्जरा एवं पुण्य का आस्रव व अनुबंध होता है। पाप के निरोध व निर्जरा से आत्मा शुद्ध होती है जिससे सभी परिस्थितियों से अतीत निज स्वरूप का अनुभव होता है। परन्तु किसी भी परिस्थिति से सुख का भोग करना परिस्थितियों की पराधीनता, दासता में आबद्ध होना है, जो समस्त दु:खों का हेतु है। दुःख स्वभाव से ही किसी को भी इष्ट नहीं है। अत: प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग आत्म-विकास की साधना में करना है। इसका उपयोग सुखभोग में करना घोर असाधन व दु:ख का हेतु है, जो सभी के लिए त्याज्य है। वर्तमान युग में भौतिक विकास विषय-भोगों का वर्धन करने वाली वस्तुओं की उपलब्धि व संग्रह से माना जाता है। जिस व्यक्ति समाज-देश के पास भोग्य वस्तुओं की जितनी प्रचुरता है वह उतना ही अधिक भौतिक दृष्टि से सम्पन्न माना जाता है, परंतु यह धारणा सही नहीं है, कारण कि विकास उसे कहा जाता है जिससे प्राणी का हित हो। प्राणी का हित प्राप्त परिस्थितियों के सदुयोग में है अथवा जीवन की नैसर्गिक आवश्यकताओं यथा भोजन, वस्त्र, पात्र, मकान, शिक्षा व चिकित्सा की पूर्ति करने में है, भोग भोगने में नहीं है। कारण कि भोग का सुख शक्तिहीनता, पराधीनता, जड़ता व अभाव में आबद्ध करने वाला है तथा स्वार्थपरता, हृदय हीनता, निर्दयता, अभाव, चिंता, द्वन्द्व, संघर्ष आदि समस्त दु:खों व दोषों को पैदा करने वाला है। विश्व में कोई दु:ख व बुराई ऐसी नहीं है जिसका कारण विषय-वासना जन्य सुख न हो। भोग की सुख-लोलुपता में आबद्ध होने से
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy