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पुण्य-पाप तत्त्व
की वृद्धि एवं उत्तरोत्तर अनंत - अनंत गुणी पुण्य की वृद्धि का सूचक है। कारण कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों की उपलब्धि स्पर्शनेन्द्रिय-मतिज्ञानावरण आदि पाँचों मतिज्ञानावरण कर्मों के भेदों के क्षयोपशम से होती है। अत: इनमें से किसी भी इन्द्रिय का मिलना पुण्य का फल है। परंतु पंचेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय होना क्रमश: संक्लेशभाव का, आत्म- ह्रास का एवं उत्तरोत्तर अनंत-अनंत गुणी पाप की वृद्धि का सूचक है। इस प्रकार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की उपलब्धि होने से विशुद्धिभाव और इससे विपरीत क्रम में संक्लेश हेतु हैं। इसी प्रकार यही तथ्य संहनन, संस्थान आदि अन्य पुण्यपाप की प्रकृतियों पर भी चरितार्थ होता है । अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियाँ भौतिक उपलब्धियों में सामर्थ्य की कमी एवं आध्यात्मिक विकास में कमी की सूचक हैं।
तात्पर्य यह है कि अघाती कर्मों की प्रकृतियों का उदय भौतिक सामग्री की उपलब्धियों का हेतु है । इन प्रकृतियों की सत्ता व उदय जीव के लिए किंचित् भी अहितकर व घातक नहीं है । अघाती कर्मों की 101 प्रकृतियों में से 85 प्रकृतियों की सत्ता चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में द्विचरम समय तक रहती है जिनमें असातावेदनीय, नीच गोत्र, अनादेय, अयशकीर्ति में बाधक नहीं हैं। इसी प्रकार अघाती कर्मों के उदय से प्राप्त शरीर-इन्द्रिय आदि भौतिक सामग्री व सामर्थ्य भी स्वयं किसी जीव के लिए हितकर-अहितकर नहीं है । हितकर - अहितकर है इनका सदुपयोगदुरुपयोग। अघाती कर्मों से प्राप्त सामग्री व सामर्थ्य का उपयोग विषयकषाय में, भोग-वासना की पूर्ति में करना इनका दुरुपयोग है जो अहितकर है तथा इनका उपयोग दोषों के त्याग एवं सद्प्रवृत्तियों में करना सदुपयोग है, जो हितकर व कल्याणकारी है।