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--- पुण्य-पाप तत्त्व
अर्थात् स्थिति बंध और अनुभाग बंध के अभाव में शुष्क भींत पर फेंकी गई मुट्ठी भर बालुका के समान, जीव से संबंध होने के दूसरे समय में ही पतित हुए सातावेदनीय कर्म को ‘बंध' संज्ञा देने में विरोध आता है।
तात्पर्य यह है कि स्थिति बंध के अभाव में कर्म ठहरता ही नहीं है, अत: उसे कर्म-बंध मानने में विरोध आता है। धवलाकार ने इसे आगे स्पष्ट रूप से समझाया भी है तथा जयधवला पुस्तक 1 पृष्ठ 62-63 पर भी इसका विशेष स्पष्टीकरण किया है। आशय यह है कि स्थिति बंध होने पर ही प्रकृति, प्रदेश व अनुभाग ‘बंध' अवस्था को प्राप्त होते हैं। स्थिति बंध होता है कषाय से। कषाय औदयिक भाव है। अत: औदयिक भाव ही बंध का कारण है। औदयिक भावों में भी गति, जाति आदि सब औदयिक भाव बंध के कारण नहीं हैं, केवल कषाय रूप औदयिक भाव ही बंध के कारण हैं।
दया, दान, अनुकम्पा, वैयावृत्त्य (सेवा), मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थता, सरलता, मृदुता आदि समस्त सद्प्रवृत्तियाँ या सद्गुण किसी कर्म के उदय से नहीं होते हैं, ये औदयिक भाव नहीं हैं। अत: इन्हें कर्म-बंध का कारण मानना सिद्धांत के विरुद्ध है तथा समस्त सद्गुण जीव के स्वभाव रूप होते हैं, विभाव रूप नहीं। विभाव दोष रूप ही होता है गुण रूप नहीं। स्वभाव से कर्म क्षय होते हैं, कर्मबंध नहीं। दया, दान, सेवा, परोपकार, अनुग्रह, कृपा आदि समस्त सद्प्रवृत्तियाँ गुण रूप होने से शुभ रूप ही होती हैं, क्षय में ही हेतु हैं, बंध में नहीं। दोष कभी शुभ नहीं होता, अशुभ ही होता है। अत: दोष से, पाप से, कर्म बँधते हैं गुण से नहीं। ऊपर कह आए हैं कि स्थिति बंध से ही कर्म 'बंधरूप' को प्राप्त होते हैं। स्थिति बंध होता है कषाय से। अत: कषाय के उदय रूप अशुभ भाव पर ही कर्म बंध निर्भर करता है। स्थिति के क्षय से कर्म का क्षय होता है जैसा कि कहा है