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________________ 190 - --- पुण्य-पाप तत्त्व दुष्प्रवृत्तियों का उदात्तीकरण होकर वे शुभ प्रवृत्तियों में परिणत होती हैं तथा अशुभ प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का अपकर्षण और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्षण होता है, जो आत्मा के उत्कर्ष का ही द्योतक है। शुभ भाव से सर्वहितकारी प्रवृत्ति होती है, जिससे सबके हृदय में शुभभाव वाले के प्रति प्रमोदभाव होता है व प्रसन्नता देने की भावना रहती है। इस प्रकार परस्पर में अनुराग, प्रमोद व प्रेम का आदान-प्रदान होता रहता है जो राग गलाने में, कर्म क्षय करने में सहायक है। शुभ भावों से जाने-अनजाने जिन व्यक्तियों का हित होता है उनके हृदय में हित करने वाले व्यक्ति के प्रति प्रेम उमड़ता है तथा वे उसकी सेवा व सहायता करने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, उसके संकल्प व कार्यों को सम्पन्न करने में अपना अहोभाग्य मानते हैं। उसके सहयोग व सेवा के लिए सदा उद्यत रहते हैं। यह उसके शुभ भाव का अवान्तर व आनुषंगिक फल है। यह उत्कृष्ट भौतिक विकास का द्योतक है। यद्यपि शुभ भाव वाले व्यक्ति को उनकी सेवा की अपेक्षा नहीं होती है। उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से स्वत: होती रहती है। यह अभाव से रहित सदा ही वैभव सम्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि कषाय की कमी रूप क्षायोपशमिक भाव से घाती कर्मों का क्षयोपशम रूप क्षय होता है और अघाती कर्मों की शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्षण होता है। इस प्रकार कषाय के क्षय रूप शुभ भाव से चारों घाती कर्मों का क्षय हो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, अनन्त वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व व चारित्र की उपलब्धि होती है। अर्थात् प्राणी का आध्यात्मिक
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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