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________________ 188 ----- पुण्य-पाप तत्त्व दर्शन गुण के विकास से तत्त्व का साक्षात्कार व विवेक का उदय होता है जिससे ज्ञान गुण का विकास होता है अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है तथा दर्शन गुण के विकास से स्व-संवेदन शक्ति का विकास होता है। संवेदनशक्ति के विकास से जड़ता मिटती है। जिससे वेदना के अनुभव की स्पष्टता बढ़ती जाती है। शुभ भाव के द्वारा समता पुष्ट होने से असातावेदनीय का प्रभाव घटता है तथा सातावेदनीय का अनुभव पुष्ट होता है। दर्शनगुण से स्व-संवेदन का विकास होता है अर्थात् संवेदन शक्ति तीव्र होती है जिससे क्रमश: स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय का निर्माण होता है व शरीर की क्रियाओं की संरचना होती है अर्थात् नाम कर्म की शुभ प्रकृतियों का अर्जन व निर्माण होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भौतिक विकास होता है। शुद्ध व शुभ भावों से ‘पर' का महत्त्व व मूल्य घटता है और स्व (आत्मा या चैतन्य) का महत्त्व व मूल्य बढ़ता है उससे उच्च गोत्र का अनुभव होता है। कारण कि 'पर' के आधार पर अपना मूल्यांकन करने से मूल्य ‘पर' का ही रहता है अपना मूल्य घट जाता है या नहीं रहता है जिससे हीनभावना उत्पन्न होती है। हीनता का अनुभव ही नीच गोत्र है। भावों की विशुद्धि से 'पर' का मूल्य घटता है और अपना (आत्मा का) मूल्य बढ़ता है, जो उच्च गोत्र का द्योतक है। यह सर्वविदित है कि भावों की विशुद्धि से शुभ आयु के अनुभाग का उत्कर्ष होता है एवं दर्शन गुणरूप संवेदनशीलता की वृद्धि से क्रूरता मिटकर करुणाभाव की जागृति होती है। करुणा का क्रियात्मक रूप सेवा या उदारता है। उदारता 'दान' की द्योतक है। अत: शुभभाव से औदार्य या
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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