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________________ -------179 पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग ----- पापों का क्षय करने वाला व उत्कृष्ट मंगल कहा है अर्थात् नमस्कार मंगल, पुण्यास्रव व कर्मक्षय इन सबका कारण है। __ उपर्युक्त गाथा से वर्तमान में प्रचलित यह धारणा कि जिससे पुण्य का अर्जन या वृद्धि हो वह अशुद्ध भाव है, भ्रांत सिद्ध होती है। पहले यह कह आये हैं कि साधक जैसे-जैसे गुणस्थान आरोहण करता है अर्थात् संयम, त्याग, तप चारित्र में आगे बढ़ता है, कषाय का क्षय करता है वैसे-वैसे पुण्य में वृद्धि होती जाती है। यदि पुण्यास्रव के कारण को अशुद्धभाव माना जाय तो संयम, त्याग को अशुद्ध भाव मानना पड़ेगा, जो सिद्धांत विरुद्ध है तथा ऐसी दशा में साधक अवस्था में शुद्ध भाव संभव ही नहीं होगा और समस्त साधना का क्षेत्र अशुद्ध भाव के अंतर्गत आ जायेगा। फिर अशुद्ध भाव को ही कर्मक्षय का कारण मानना होगा, जो उचित नहीं हो सकता। कारण कि दसवें गुणस्थान तक पाप व पुण्य का बंध होता है। अत: दसवें गुणस्थान तक अशुद्ध भाव ही कहा जायेगा और वीतराग केवली को कर्मक्षय करना ही नहीं है, ऐसी स्थिति में शुद्ध भाव से कर्मक्षय होते हैं, यह सूत्र ही व्यर्थ हो जायेगा। अत: पुण्यास्रव के कारणभूत शुभ भाव को अशुद्ध भाव मानना युक्ति विरुद्ध है। जहाँ भी संयम व तप रूप साधना से कर्म क्षय होना कहा गया है वहाँ कर्म क्षय से अभिप्राय पाप कर्मों के क्षय से ही है, पुण्य के अनुभाग के क्षय से नहीं। यदि पुण्य कर्म के अनुभाग का क्षय भी इष्ट माना जाय तो पाप कर्म भी साधना के क्षेत्र में आ जायेंगे। क्योंकि पुण्य प्रकृतियों व उनके अनुभाग का क्षय संक्लेश भाव रूप पाप प्रवृत्तियों के अतिरिक्त अन्य किसी से होता ही नहीं है। अत: कर्मों के क्षय से अभिप्राय पाप प्रकृतियों के क्षय से है। पुण्य-प्रकृतियों के स्थिति-क्षय के लिए कोई भी प्रयत्न व साधना नहीं करनी पड़ती। पाप प्रकृतियों की स्थिति के क्षय के साथ पुण्य प्रकृतियों की स्थिति स्वत: क्षीण हो जाती है, क्योंकि पाप और पुण्य इन
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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