SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 176 पुण्य-पाप तत्त्व पुण्य का आस्रव बढ़ता है उतना-उतना पाप कर्मों के बंधनों का क्षय होता है व पुण्य की स्थिति में कमी होती है। अत: पुण्य का आस्रव पाप कर्मों के क्षय का सूचक है और यह संयम, तप, शुद्धभाव व विशुद्धि का अभिव्यक्तक भी है। अत: पुण्य का आस्रव हेय व त्याज्य नहीं है। जैसे रोग कम हो या अधिक, अस्वस्थता का ही द्योतक होता है। कम रोग कम अस्वस्थता का और अधिक रोग अधिक अस्वस्थता का द्योतक होता है। अत: रोग कम हो या अधिक, वह बुरा ही है जबकि रोग में कमी का होना स्वास्थ्य वृद्धि का द्योतक है। इसी प्रकार कषाय कम हो तो नवीन पाप कर्मों का बंध कम होता है और कषाय अधिक हो तो नवीन पाप कर्मों का बंध अधिक होता है अर्थात् कषाय कम या मंद हो अथवा अधिक या तीव्र, वह पाप कर्म-बंध का ही हेतु है। इसके विपरीत कषाय में कमी या मंदता होने से पूर्व में बँधे सब पाप-पुण्य कर्मों की स्थिति का एवं पाप कर्मों के अनुभाग का क्षय होता है। अतः कषाय की मंदता कर्मक्षय का हेतु है, कर्म बंध का नहीं। जबकि मंद कषाय कर्मबंध का हेतु है। मंद कषाय और कषाय की मंदता में उतना ही अंतर है जितना अस्वस्थता में और स्वस्थता में अंतर है अर्थात् ये दोनों विरोधी अवस्थाएँ हैं। क्योंकि कषाय की विद्यमानता दोष की, औदयिक भाव की द्योतक है और कषाय की मंदता दोष में कमी होने की या निर्दोषता की प्रतीक है। आगमभाषयौपशमिक-क्षायोपशमिक-क्षायिकं भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुन:शुद्धात्माभिमुखपरिणामशुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते। -समयसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा 320 एवं द्रव्य संग्रहटीका, 45 आगम भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीनों भाव कहे गये हैं और अध्यात्म भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम व शुद्धोपयोग इत्यादि पर्याय नाम को प्राप्त होते हैं।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy