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पुण्य-पाप के अनुबंध की चौकड़ी
चउन्विहे कम्मे पण्णत्ते, तंजहा-सुभे णाममेगे सुभे विवागे, सुभे णाममेगे असुभविवागे, असुभे णाममेगे सुभविवागे, असुभे णाममेगे असुभ विवागे।।
-स्थानांग 4, उद्देशक 4, सूत्र 603 कर्म चार प्रकार का है
1. शुभ और शुभ विपाक-कोई कर्म शुभ होता है और उसका विपाक भी शुभ होता है।
2. शुभ और अशुभ विपाक-कोई कर्म शुभ होता है और उसका विपाक अशुभ होता है।
3. अशुभ और शुभ विपाक-कोई कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक शुभ होता है।
4. अशुभ और अशुभ विपाक-कोई कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ होता है। इनमें से दूसरे एवं तीसरे भंग संक्रमण करण से संभव हैं।
पुण्य-पाप के अनुबंध के चार प्रकार हैं-1. पापानुबंधी पाप-पाप के उदय में पाप कर्म का बंध होना, 2. पुण्यानुबंधी पाप-पाप के उदय में पुण्य का बंध होना। 3. पापानुबंधी पुण्य-पुण्य के उदय में पाप का