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पुण्य-पाप तत्त्व
पुण्य मुक्ति में सहायक है, क्योंकि पुण्य का उपार्जन पाप की कमी से, पाप के त्याग से, शुभ योग से होता है। यह नियम है कि जितने जितने अंश में कषाय में कमी आती जाती है, पाप घटता जाता है, उतना - उतना पुण्य का अनुभाग बढ़ता जाता है, कषाय के क्षय से पूर्ण शुद्धोपयोग होता है तो उत्कृष्ट पुण्य का अनुभाग होता है। पुण्य का उत्कृष्ट अनुभाग होने पर ही वीतरागता आती है, केवलज्ञान होता है, मुक्ति मिलती है। अतः मुक्ति न मिलने का कारण पुण्य का पूर्ण उपार्जन न होना है, पुण्योपार्जन में कमी रहना है। इसे उदाहरणों से समझें, यथा
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दो
उदाहरण 1.-जैसे कोई व्यक्ति कुएँ से पानी पाने के लिए एकफुट के अगनित गड्ढे खोदे तब भी पानी नहीं निकलता है, गहरा खोदने पर ही पानी निकलता है।
गड्ढा पूरा
उदाहरण 2.-किसी घड़ी या यंत्र में उसके हजारों पुर्जे लगा दिये जायें, परंतु कुछ पुर्जे लगने से रह जाएँ तो वह घड़ी व यंत्र कार्यकारी नहीं हो सकते, सम्पूर्ण पूर्जे यथास्थान पर लगने से ही वह यंत्र कार्यकारी व सफल होता है।
उदाहरण 3.-जल का तापमान कुछ अंशों में लाखों करोड़ों बार घटता-बढ़ता रहे, परंतु वह बर्फ नहीं बन सकता। तापमान के शून्य हो पर ही वह जल बर्फ बनता है।
इसी प्रकार जीव के कषाय में आंशिक कमी - वृद्धि असंख्य अनंत बार होती रहती है, परंतु कषाय की आंशिक कमी से प्रकट हुए आत्मा के गुणों का विकास व पुण्य की आंशिक वृद्धि होने से किसी को मुक्ति नहीं मिलती है। मुक्ति मिलती है कषाय रूप पाप के पूर्ण क्षय से, पूर्ण निर्दोषता