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प्राक्कथन
XIX कर्म के संपादन में है, उसमें आबद्ध होने में नहीं है। साधक का कर्तव्य पुण्य कर्म का सदुपयोग दया, दान, सेवा, साधना में कर कर्म की दासता से छुटकारा पा लेने में है, उससे ऊपर उठ जाने में है; उसके आश्रय का त्याग कर स्वाधीन हो जाने में है। साधक के लिए पुण्य कर्म से प्राप्त सामग्री के सदुपयोग का दायित्व है, जो साधना में सहायक है, इसे कभी नहीं भूलना चाहिये अर्थात् साधक को पुण्य कर्म से प्राप्त सामग्री के दासत्व से छुटकारा पाना है, सदुपयोग के दायित्व से नहीं।
प्रस्तुत पुस्तक में पुण्य-पाप का विवेचन किया गया है। इसमें पाप तत्त्व, पापास्रव, पापकर्म, पाप-प्रवृत्ति आदि पाप के सब रूप पूर्ण रूप से त्याज्य ही हैं। परंतु जहाँ भी पुण्य को महत्त्व दिया गया है इसे मुक्ति में सहायक कहा है वहाँ पुण्य के कारणभूत कषाय में कमी रूप विशुद्धि भाव को, आत्म-पवित्रता को, पुण्य कर्म के सदुपयोग को, पुण्य के अनुभाव को ही ग्रहण करना चाहिये। पुण्य से प्राप्त सामग्री से सुख भोग को नहीं। पुण्य कर्मों के अनुभाव की उत्कृष्ट अवस्था में ही केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन संभव है। अत: पुण्य कर्म में महत्त्व आत्म-विशुद्धि का ही है।
“इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं णीसंक” वीतराग वाणी सत्य है, तथ्य है, हमें इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। केवल प्रचलित अर्थ जो वीतरागता परक नहीं है, अपितु राग-वर्धक प्रतीत हो रहे हैं, उनके सही अर्थ खोजने के लिए प्रयास किया गया है। अल्पज्ञ होने के कारण यदि जिन, जिनोपासक गुरु व जिनोपदिष्ट प्रवचन की अत्यल्प भी अवज्ञा हुई हो तो मिथ्या मे दुष्कृतम्।
इस कृति में मैंने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे जैनागम एवं कर्म-सिद्धांत के ग्रन्थों में प्रतिपादित तथ्यों के आधार पर स्थापित हैं। मैंने लेखन में तटस्थ एवं संतुलित दृष्टिकोण अपनाने का एवं भाषा में संयत रहने का प्रयास किया है। तथापि मेरे क्षायोपशमिक ज्ञान में कमी या भूल होना संभव है।